Yog Kise Kahate Hain-योग किसे कहते हैं

Yog Kise Kahate Hain:हेलो स्टूडेंट्स, आज हमने यहां पर योग की परिभाषा, प्रकार और उदाहरण के बारे में विस्तार से बताया है।Yog Kise Kahate Hain यह हर कक्षा की परीक्षा में पूछा जाने वाले यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

Yog Kise Kahate Hain

भारत ने पूरी दुनिया को योग की शिक्षा दी हैं. इसलिए हमारा देश योग गुरु हैं. योग हमारे देश में हज़ारों सालो से किया जा रहा हैं. तथा हमारे ऋषि मुनियों ने गहन अध्धयन के पश्चात् योग की क्रियाओ को बनाया हैं. प्रत्येक वर्ष 21 जून को योग दिवस के रूप में मनाया जाता हैं।

जिसकी पहल हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सयुंक्त राष्ट्र महासभा में 27 सितम्बर 2014 को की थी। लेकिन आपको पता हैं योग क्या होता हैं। इसके क्या लाभ हैं।

 और यह कितने प्रकार के होते हैं। तो इस आर्टिकल में हम योग के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करेगे।

योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की युजिर’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- बाँधना, युक्त करना, जोड़ना, सम्मिलित होना, एक होनाYog Kise Kahate Hain। इसका अर्थ संयोग या मिलन भी है।

महादेव देसाई के अनुसार- “शरीर, मन और आत्मा की समग्र शक्तियों को परमात्मा से संयोजित करना योग है।”

कठोपनिषद् में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- “जब चेतना निश्चेष्ट हो जाती है, मन शान्त हो जाता है, जब बुद्धि स्थिर (अचंचल) हो जाती है तब ज्ञान उसे सर्वोच्च पद प्राप्त हुआ मानताYog Kise Kahate Hain है, चेतना और मन के इस दृढ़ निग्रह को ही योग की संज्ञा दी गई और जो इसे प्राप्त करता है, वह बन्धन मुक्त हो जाता है। “

विष्णु पुराण के अनुसार-“जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।”

भगवद्गीता के अनुसार- “निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है। दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्वों में सर्वत्र समभाव रखना योग है। “

पतंजलि योगसूत्र के अनुसार, “अभ्यास व वैराग्य द्वारा चित्तवृत्तियों के बाह्य समस्त विषयों से निरुद्ध कर अपने मूलस्वरूप में शाश्वत रूप से असम्प्रेज्ञात व समाधि की स्थिति में अवस्थित होना योग है। “

डॉ० राधाकृष्णन् के अनुसार योग का अर्थ है, “अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को एक जगह इकट्ठा करना, उन्हें सन्तुलित करना और बढ़ाना। “

पतंजलि के योग का अर्थ ‘चित्तवृत्तिनिरोध’ या संयमित मन-मस्तिष्क है। योग का शाब्दिक अर्थ है- जुड़ना, आत्मा और परमात्मा का एकीकरण या सीमित का असीमित से मिलना ।

वस्तुत: योग मानसिक, शारीरिक तथा आध्यात्मिक विकास का क्रमYog Kise Kahate Hain है। योग का लक्ष्य शरीर को मानसिक शान्ति हेतु तैयार करना है जो कि पर ब्रह्म प्राप्ति के लिए आवश्यक है। ‘युज्’ धातु के कारण तथा भाव में छन्न प्रत्यव जोड़ने से ‘योग’ शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है, जिसका अर्थ हैं- समाधि। समाधि का अभिप्राय है- सम्यक् प्रकार से परमात्मा में मिल जाना। पतंजलि ने समाधि का अर्थ चित्तवृत्तियों को रोकना माना है।

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चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है। ये वृत्तियाँ पाँच हैं-

(1) प्रमाण,

(2) विपर्यय,

(3) विकल्प,

(4) निद्रा तथा

(5) स्मृति

 इन वृत्तियों का निरोध अभ्यास तथा वैराग्य से होता है। चित्त को एकाग्र या स्थिर करना अभ्यास है। ऐहिक तथा पारलौकिक भोगों से विमुक्त होना वैराग्य है। पतंजलि ने आत्म-साधना के लिए अष्टांग योग का प्रतिपादन किया है।

योग के अंग-

इसके विभिन्न अंग इस प्रकार हैं-

(1) यम– यम पतंजलि अष्टांग योग का प्रथम अंग है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य का सम्मिलित नाम ही यमहै। ये आचार-शुद्धि के मूलाधार हैं। पतंजलि का कथन है कि जो सत्य को जीवन में ढाल लेता है, उसे वचन-सिद्धि प्राप्त हो जाती है। जो अहिंसा को जीवन में उतार लेता है, उसके समीप अन्य प्राणी भी परस्पर बैर भाव भूल जाते हैं। अस्तेय को जीवन में उतार लेने पर जगत् की समस्त सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जाती है और ब्रह्मचर्य से शक्ति प्राप्त होती है।

इन पाँचों यमों का सब जाति, सब देश तथा सब काल में पालन होने से एवं किसी भी निमित्त से इनके विपरीत हिंसादि दोषों के न घटने से इनकी संज्ञा महाव्रत हो जाती है ।

(2) नियम– योग दर्शन के अनुसार पवित्रता, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्राणिधान नामक पाँच नियम हैं। ईश्वर-प्राणिधान से समाधि की सिद्धि होती है।

(3) आसन– आसन अनेक प्रकार के हैं। उनमें से आत्म-संयम चाहने वाले पुरुष के लिए सिद्धासन, पद्मासन, मयूरासन, भद्रासन, वीरासन आदि आसन उपयोगी माने गये हैं। इनमें से कोई भी साधन हो, परन्तु मेरु दण्ड, मस्तक तथा ग्रीवा को सीधा अवश्य रखना चाहिए।

(4) प्राणायाम– इससे मन धारणा के योग्य बनता है।

(5) प्रत्याहार– इस अभ्यास से इन्द्रियों को वश में किया जाता है। इससे इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी बनाया जाता है।

(6) धारणा – चित्त को एक पर स्थिर करना।

(7) ध्यान-मन को उसी विषय पर लगाये रखना।

(8) समाधि– स्वयं को भूलकर विषय में लीन हो जाना।

योग के मुख्य चार प्रकार होते हैं।

  • राज योग,
  • कर्म योग,
  • भक्ति योग,
  • ज्ञान योग,

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कर्म योग के अनुसार हर कोई योग करता है।

  • राज योग : राज योग यानी राजसी योग। इसमें ध्यान महत्वपूर्ण है। इसके आठ अंग हैं। इनमें यम (शपथ), नियम (आचरण-अनुशासन), आसन (मुद्राएं), प्राणायाम (श्वास नियंत्रण), प्रत्याहार (इंद्रियों का नियंत्रण), धारण (एकाग्रता), ध्यान (मेडिटेशन) और समाधि (परमानंद या अंतिम मुक्ति)।
  • कर्म योग : हर कोई इस योग को करता है। कर्म योग ही सेवा का मार्ग है। कर्म योग का सिद्धांत है कि जो आज अनुभव करते हैं वह हमारे कार्यों से भूतकाल में बदलता जाता है। जागरूक होने से हम वर्तमान से अच्छा भविष्य बना सकते हैं। स्वार्थ और नकारात्मकता से दूर होते हैं।
  • भक्ति योग : भक्ति का मार्ग से सभी की स्वीकार्यता और सहिष्णुता पैदा होता है। इसमें भक्ति के मार्ग का वर्णन है। सभी के लिए सृष्टि में परमात्मा को देखकर, भक्ति योग भावनाओं को नियंत्रित करने का एक सकारात्मक तरीका है।
  • ज्ञान योग : अगर भक्ति को मन का योग मानें तो ज्ञान योग बुद्धि का योग है। यह ऋ षि या विद्वानों का रास्ता है। इसमें ग्रंथों और ग्रंथों के अध्ययन के माध्यम से बुद्धि के विकास की आवश्यकता होती है। ज्ञान योग को सबसे कठिन माना जाता है और साथ ही साथ सबसे प्रत्यक्ष होता है।

आर्टिकल में अपने पढ़ा कि योग किसे कहते हैं, हमे उम्मीद है कि ऊपर दी गयी जानकारी आपको आवश्य पसंद आई होगी। इसी तरह की जानकारी अपने दोस्तों के साथ ज़रूर शेयर करे ।

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