UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 10 उपनिषत – सुधा (पद्य – पीयूषम्)

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परिचय

भारतवर्ष के वेद निर्विवाद रूप से विश्व-वाङमय में सर्वाधिक प्राचीन हैं। इन्हें अपौरुषेय और नित्य माना जाता है। यही कारण है कि इनके रचना-काल-निर्धारण के सन्दर्भ में भारतीय विचारक मौन हैं। सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय चार भागों-संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक् और उपनिषद् में विभक्त हैं। इनमें संहिता भाग स्तुति-प्रधान, ब्राह्मण भाग यज्ञादि-कर्मकाण्ड-प्रधान, आरण्यक भाग उपासना-प्रधान और उपनिषद्-भाग ज्ञान-प्रधान हैं। इसीलिए उपनिषदों को वेद का ज्ञानकाण्ड तथा वेद का अन्तिम भाग होने के कारण वेदान्त भी कहते हैं। उपनिषदों में जिस परम ज्ञानात्मक विद्या का प्रतिपादन किया गया है, उसे ब्रह्म विद्या या आत्म विद्या भी कहा जाता है। उपनिषदों की संख्या यद्यपि शताधिक है, किन्तु इन एकादश-ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, श्वेताश्वतर, छान्दोग्य और बृहदारण्यक-उपनिषदों को अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। इनमें से कुछ उपनिषद् गद्य में हैं, कुछ पद्य में और कुछ गद्य-पद्य दोनों में ही निबद्ध हैं।
प्रस्तुत पाठ में दिये गये मन्त्र कुछ प्रसिद्ध उपनिषदों से संगृहीत किये गये हैं।

पाठ-सारांश

वैदिक ज्ञान की पात्रता जिस पुरुष के हृदय में परमात्मा और अपने गुरु के प्रति उच्चकोटि की भक्ति होती है, वही उपनिषदों के ज्ञानपरक सिद्धान्तों को समझ पाता है। मोक्ष-प्राप्ति का इच्छुक मैं; आदिपुरुष; उस परमात्मा की शरण को प्राप्त करता हूँ, जो सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को रचकर उसे वेदों का ज्ञान प्रदान करते हैं।

सम्बन्ध और मोक्ष का कारण मन दो प्रकार का होता है-कामनाओं से पूर्ण अशुद्ध मन और कामनाओं से रहित शुद्ध मन। यह मन ही मनुष्यों के बन्धन-मोक्ष का कारण है। विषयों में लिप्त अशुद्ध मन सांसारिक दु:खों में फँसाता है और वासनाओं से रहित शुद्ध मन मुक्ति प्रदान कराता है।

शुद्ध स्वरूप सत्य रूप परमात्मा पर चमकदार एवं सुनहरे सूर्य के मण्डल का पर्दा पड़ा है, उसके हट जाने पर चैतन्यस्वरूप शुद्ध ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। जो ज्ञानी पुरुष उस शुद्ध ब्रह्म का अपनी आत्मा से ही साक्षात् दर्शन करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

जगन्नियन्ता सूर्य, चन्द्र, तारे और लौकिक अग्निसहित सम्पूर्ण संसार उसी परमात्मा के दिव्य प्रकाश से प्रकाशमान हैं। वह परमात्मा अग्नि, जल, सम्पूर्ण जगत्, ओषधियों और वनस्पतियों में व्याप्त है। उसी सर्वशक्तिमान, परमात्मा के भय से ही अग्नि और सूर्य उष्णता धारण करते हैं और उसी परमात्मा के आदेश से इन्द्र, वायु, यम और सभी लोकपाल नियमित रूप से अपने-अपने काम पूरे करते हैं।

निराकार और अज्ञेय वह सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी ब्रह्म पैररहित होकर भी शीघ्र चलने वाला, हाथरहित होकर भी वस्तुओं को पकड़ने वाला, आँखरहित होकर भी देखने वाला और कर्णरहित होकर भी सब कुछ सुनने वाला है। वह जानने योग्य सभी कुछ जानता है, परन्तु उसे कोई नहीं जानता।

सृष्टिकर्ता जलती हुई अग्नि से हजारों चिंगारियों के उत्पन्न होने के समान ही अविनाशी ब्रह्म से यह समस्त दृश्य जगत् उत्पन्न होता है।

परमपद की प्राप्ति ब्रह्मज्ञानी पुरुष अपने नाम और रूप के अस्तित्व रूपी अभिमान को छोड़कर उस दिव्य पुरुष में उसी प्रकार विलीन हो जाता है; जैसे-नदियाँ समुद्र में। ब्रह्मज्ञानी सबमें अपने को और अपने में सबको देखता है। अपने हृदय से कामनाओं के छूट जाने पर वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।

परम ज्ञानी की स्थिति उपनिषद् के ज्ञान को जानने वाला अर्थात् परम ज्ञानी (ब्रह्मज्ञानी) अपनी स्थिति को व्यक्त करते हुए कहता है, “मैं अज्ञानरूपी अन्धकार से परे, सूर्य के समान वर्ण वाले, स्वयं प्रकाशस्वरूप इस महान् पुरुष को जानता हूँ।” ब्रह्म के इसी रूप का ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानी पुरुष उस लोक में पहुँच जाता है, जहाँ पहुँचने पर मृत्यु का भय नहीं रह जाता। ज्ञान के अतिरिक्त उस परम पद की प्राप्ति के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥ (2008, 13, 14]

शब्दार्थ यस्य = जिस (मनुष्य) की। देवे = परमात्मा में। पराभक्तिः = उच्चकोटि की भक्ति। यथा = जैसी (भक्ति) तथा = वैसी। गुरौ = गुरु में। तस्य = उस (मनुष्य) की। एते = ये (उपनिषद्)। कथिताः = कहे गये। अर्थाः = अर्थ। प्रकाशन्ते = प्रकट हो जाते हैं। महात्मनः = महान् आत्मा वाले पुरुष के लिए।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘उपनिषत्सुधा’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भगवद्भक्ति और गुरुभक्ति की महिमा का वर्णन किया गया है अन्वये यस्य (पुरुषस्य) देवे परा भक्तिः (अस्ति), यथा देवे तथा गुरौ (अपि भक्तिः अस्ति), तस्य महात्मनः (हृदये) हि (उपनिषत्सु) कथिताः एते अर्थाः प्रकाशन्ते।

व्याख्या जिस पुरुष की परमात्मा में उच्चकोटि की भक्ति है, जैसी भक्ति परमात्मा में है, वैसी भक्ति अपने गुरुदेव में भी है, उस महान् अन्त:करण वाले पुरुष के हृदय में उ उषदों में वर्णित आत्मज्ञान सम्बन्धी ये सिद्धान्त (स्वत:) प्रकाशित हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मज्ञान सम्बन्धी सिद्धान्तों को साक्षात् अनुभव
होने लगता है। =

(2)
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं, यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं, मुमुक्षुर्वे शरणमहं प्रपद्ये ॥

शब्दार्थ यः = जो (परमात्मा ब्रह्माणं = ब्रह्म को। विदधाति = उत्पन्न करता है। पूर्वम् = सबसे पहले, सृष्टि – के प्रारम्भ में। वेदान् =चारों वेदों को, वेदों के ज्ञान को। प्रहिणोति = भेजता है, प्रदान करता है। तस्मै = उसके लिए। देवं = उसी परमात्मा को। आत्मबुद्धिप्रकाशम् = आत्मज्ञान को प्रकाशित करने वाले मुमुक्षुः = मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले। शरणम् = आश्रय के रूप में। प्रपद्ये = प्राप्त करता हूँ।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में परमेश्वर को जानने और प्राप्त करने के लिए उन्हीं की शरण प्राप्त करने को कहा गया है।

अन्वय यः (परमात्मा) पूर्वं ब्रह्माणं विदधाति, यः च वै तस्मै (ब्रह्माणे) वेदान् प्रहिणोति, तं ह आत्मबुद्धिप्रकाशं देवं मुमुक्षुः अहं वै शरणं प्रपद्ये।।

व्याख्या जो परमात्मा सर्वप्रथम, अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को रचता है और जो निश्चय ही उस ब्रह्मा के लिए वेदों के ज्ञान को भेजता है, अर्थात् प्रदान करता है, उसी आत्मज्ञान को प्रकाशित करने वाले परमात्मा की मोक्ष की इच्छा करने वाला मैं निश्चय ही उसकी शरण को प्राप्त करता हूँ।

(3)
मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च।
अशुद्धं कामसङ्कल्पं शुद्धं कामविवर्जितम् ॥ [2008, 10, 14]

शब्दार्थ मनः = अन्तःकरण चित्ता द्विविधम् =दो प्रकार का। प्रोक्तम् = कहा गया है। शुद्धम् = पवित्र, निर्मल। अशुद्धम्= अपवित्र, मलिन। कामसङ्कल्पम् = कामनाओं और संकल्पों वाला। काम-विवर्जितम् = कामनाओं से रहित।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में मन के भेद लक्षणों सहित बताये गये हैं।

अन्वये मनः हि द्विविधं प्रोक्तम्। शुद्धं च अशुद्धम् एव च। अशुद्धं (मनः) कामसङ्कल्पं (अस्ति), कामविवर्जितं शुद्धम् (मनः अस्ति)।

व्याख्या मन दो प्रकार का कहा गया है-शुद्ध और अशुद्ध। अशुद्ध मन कामनाओं और संकल्पों वाला है और शुद्ध मन कामनाओं से रहित है। तात्पर्य यह है कि कामनाओं और इच्छाओं से युक्त मन अशुद्ध होता है तथा कामनाओं से रहित मन शुद्ध।

(4)
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥ [2006,07,12]

शब्दार्थ मनुष्याणां = मनुष्यों में कारणं = कारण बन्धमोक्षयोः = बन्धन और मुक्ति का। बन्धाय =बन्धन के लिए। विषयासक्तम् = इन्द्रियों के विषय; अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध; में लगा हुआ। मुक्त्यै = मुक्ति के लिए, दुःख के बन्धन से छुटकारे के लिए। निर्विषयं = विषय-वासनाओं में न फंसा हुआ। स्मृतम् = बताया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में मन को ही बन्धन और मोक्ष का कारण बताया गया है।

अन्वय मनुष्याणां बन्ध-मोक्षयोः कारणं मन एव (अस्ति)। विषयासक्तं (मनः) बन्धाय (भवति), निर्विषयं (मनः) मुक्त्यै स्मृतम्।।

व्याख्या मनुष्यों के (इतर प्राणियों के नहीं) बन्धन (संसार के दुःखों का) और मोक्ष (दु:ख के बन्धन से छुटकारा) का कारण केवल मन ही है; अर्थात् मन के अतिरिक्त दूसरा कोई कारण नहीं है। इन्द्रियों के विषयों; अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध; में रमा हुआ मन (सांसारिक दुःख के) बन्धन के लिए होता है और विषय-वासनाओं से रहित मन सांसारिक दुःखों के) मुक्ति के लिए बताया गया है।

(5)
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥

शब्दार्थ हिरण्मयेन = सोने जैसे चमकीले। पात्रेण = पात्र से। सत्यस्य = सूर्यमण्डल में स्थित सत्य रूप परमात्मा का। अपिहितम् = ढका हुआ है, आच्छादित। मुखम् = मुख। पूषन् = हे सूर्यदेव! अपावृणु = हटा लीजिए। सत्यधर्माय(मह्यम्) = सत्य रूप धर्म वाले मेरे लिए। दृष्टये = आत्मा का दर्शन कराने के लिए।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में मोक्षार्थी परमात्मा से सत्य का दर्शन कराने की प्रार्थना करता है।

अन्वय पूषन्! हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य मुखम् अपिहितम्। सत्यधर्माय (मह्यम्) (आत्मनः) दृष्टये त्वं तत् अपावृणु।।

व्याख्या हे पूषन् (सूर्यदेव)! तुम्हारे मण्डल में स्थित सत्य रूप परमात्मा का मुख सोने जैसे चमकीले (सूर्यमण्डल रूप) पात्र से ढका हुआ है; अर्थात् आच्छादित है। सत्यरूप धर्म वाले मेरे लिए आत्मा का दर्शन करने हेतु आप उस (मण्डल रूप पात्र) को हटा लीजिए।

(6)
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥

शब्दार्थ एकः = अकेला, अद्वितीय वशी = समस्त संसार को अपने वश में रखने वाला। सर्वभूतान्तरात्मा = सभी प्राणियों की भीतरी आत्मा एकं रूपं = एक रूप को। बहुधा = अनेक रूपों में करोति = करता है। आत्मस्थम् = अपनी आत्मा में स्थित। अनुपश्यन्ति = देखते हैं, साक्षात् अनुभव करते हैं। धीराः = ज्ञानी, विद्वान्। तेषां है उनके लिए। सुखं = सुख। शाश्वतम् = नित्य, सदा रहने वाला। नेतरेषाम् = अन्यों के लिए नहीं।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में परमात्मा का स्वरूप और उसके दर्शन का फल बताया गया है।

अन्वय यः सर्वभूतान्तरात्मा एकः वशी एकं रूपं बहुधा करोति। ये धीराः तम् आत्मस्थम् अनुपश्यन्ति, तेषां शाश्वतं सुखम् (भवति) इतरेषां न (भवति)।

व्याख्या जो परमात्मा समस्त प्राणियों की भीतरी आत्मा, अद्वितीय और समस्त संसार को अपने वश में रखने वाला है, जो अपने एक रूप को अनेक रूपों में व्यक्त करता है, जो धीर पुरुष उसे अपनी आत्मा में स्थित साक्षात् अनुभव करते हैं, उनको ही सदा रहने वाला मोक्षरूप नित्य सुख मिलता है, दूसरों को नहीं मिलता।।

(7)
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ [2010, 12]

शब्दार्थ तत्र = उस परलोक में, जो परमात्मा का सर्वोच्च पद है। सूर्यः भाति = सूर्य प्रकाशित होता है। न चन्द्रतारकम् = न चन्द्रमा और तारे। नेमाः (न + इमाः) = न ही ये। विद्युतः भान्ति = बिजलियाँ चमकती हैं। कुतः = कहाँ से अयम् अग्निः = यह अग्नि तम् एव = वह हीं। भान्तम् = प्रकाशित होते हुए। अनुभाति = पीछे प्रकाशित होता है। सर्वं = सब कुछ। तस्य = उससे। भासा = प्रकाश से, दीप्ति से। सर्वम् इदम् = यह सब कुछ। विभाति = प्रकाशित होता है।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में परमात्मा को सूर्य, चन्द्रमा आदि सभी का प्रकाशक बताया गया है।

अन्वय तत्र सूर्यः न भाति, चन्द्रतारकं न (भाति), इमाः विद्युताः न भान्ति, अयम् अग्निः कुतः (प्रकाशितः भविष्यति)। तम् एव भान्तं सर्वम् अनुभाति। तस्य भासी इदं सर्वं विभाति।।

व्याख्या वहाँ (उस परमलोक में) सूर्य नहीं चमकता है, चन्द्रमा और तारे नहीं चमकते हैं, न ये बिजलियाँ ही चमकती हैं, यह अग्नि ही कहाँ स्वयं चमक सकती है? उसी प्रकाशित होते हुए (परमात्मा) के पीछे समस्त विश्व प्रकाशित होता है। उसकी चमक से यह सभी कुछ प्रकाशित होता है; अर्थात् ईश्वर स्वयं प्रकाशयुक्त है और उस प्रकाश के समक्ष अन्य सभी प्रकाश नगण्य हैं।

(8)
यो देवोऽग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश।।
य ओषधीषु य वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः ॥

शब्दार्थ यः = जो। देवः = परमात्मा। अग्नौ = अग्नि में। अप्सु = जल में। विश्वम् भुवनम् = समस्त लोकों में। आविवेश = प्रवेश कर गया है, व्याप्त है। ओषधीषु = जड़ी-बूटियों में। वनस्पतिषु = वृक्षों-लताओं में। तस्मै देवाय = उस देवता के लिए नमः नमः = प्रणाम है, प्रणाम है।

प्रसग प्रस्तुत मन्त्र में ईश्वर की सर्वव्यापकता बतायी गयी है और उर पुनः-पुनः प्रणाम किया गया है।

अन्वय यः देवः अग्नौ (अस्ति), यः अप्सु (अस्ति), यः विश्वं भुवनम् आविवेश। यः ओषधीषु (अस्ति), यः वनस्पतिषु (अस्ति), तस्मै देवाय नमो नमः (अस्तु)।।

व्याख्या जो ईश्वर अग्नि में है, जो जलों में है, जो समस्त लोकों में व्याप्त है, जो जड़ी-बूटियों में है, जो वनस्पतियों में है, उस परमात्मा (देवता) को बार-बार नमस्कार हो। तात्पर्य यह कि संसार की कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जिसमें परमात्मा का वास न हो।

(9)
भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्यः
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥

शब्दार्थ भयात् = भय से। अस्य = इस (सर्वव्यापक परमात्मा) के तपति = तपता है। तपति = चमकता है, प्रकाशित होता है। मृत्युः = मृत्यु के देवता अर्थात् यमराज| धावति = दौड़ता है। पञ्चमः = पाँचवाँ।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में बताया गया है कि परमात्मा के भय से सभी इन्द्रादिक लोकपाल अपना-अपना कार्य शीघ्रतापूर्वक नियमित रूप से करते हैं।

अन्वय अस्य (परमात्मनः) भयात् अग्नि: तपति, (अस्य) भयात् सूर्यः तपति, (अस्य) भयात् इन्द्रश्च वायुः च पञ्चमः मृत्युः धावति।

व्याख्या इस सर्वव्यापक जगन्नियन्ता परमात्मा के भय से अग्नि तपती है अर्थात् उष्णता को धारण करती है। इसके भय से सूर्य तपता है अर्थात् चमकता है। इसके भय से ही इन्द्र-वायु तथा पाँचवें मृत्यु के देवता यमराज दौड़ते हैं; अर्थात् अपना-अपना कार्य शीघ्रतापूर्वक करते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्वामी के भय से सेवक अपना-अपना काम नियमित रूप से करते हैं, उसी प्रकार उस नियन्ता परमात्मा के भय से सभी लोकपाल अपने-अपने काम में नियमपूर्वक प्रवृत्त होते हैं।

(10)
अपाणिपादो जवनो ग्रहीतापश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्तातमाहुरग्रयं पुरुषं महान्तम् ॥

शब्दार्थ अपाणिपादः = बिना हाथ-पैर वाला। जवनः = वेगपूर्वक चलने वाला ग्रहीता = पकड़ने वाला। पश्यति = देखता है। अचक्षुः = नेत्ररहित। शृणोति =सुनता है। अकर्णः = बिना कान वाला। वेत्ति = जानता है। वेद्यम् = जानने योग्य को। वेत्ता = जानने वाला। तं = उस। आहुः = कहते हैं। अग्रयं पुरुषं = श्रेष्ठ पुरुष।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में निर्विकार शुद्ध चैतन्यस्वरूप ब्रह्म का निरूपण किया गया है।

अन्वय सः अपाणिपादः (अपि) जवन: ग्रहीता च (अस्ति)। (सः) अचक्षुः (सन् अपि) पश्यति, (स:) अकर्णः (अपि) शृणोति। सः वेद्यं वेत्ति, तस्य च वेत्ता न अस्ति। तम् अग्यं महान्तं पुरुषम् आहुः।।

व्याख्या वह; अर्थात् सर्वव्यापी चैतन्यस्वरूप शुद्ध परमात्मा; पैररहित होता हुआ भी शीघ्रतापूर्वक चलने वाला है, वह हाथरहित होता हुआ भी वस्तुओं को पकड़ने वाला है, वह नेत्ररहित होता हुआ भी देखता है, वह कानों से रहित होकर भी सुनता है। वह जानने योग्य को जानता है, उसका जानने वाला कोई नहीं है। तात्पर्य यह है कि वह सभी इन्द्रियों से रहित होते हुए भी सभी कार्यों को करता है। उसे सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ और महान् आदिपुरुष कहा जाता है।

(11)
तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्तात् पावकाद्, विस्फुलिङ्गाः सहस्रशः प्रभवन्ते सरूपाः ।।
तथाक्षराद् विविधाः सौम्य भावाः, प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति

शब्दार्थ तत् एतत् सत्यम् = यह सच्चाई है, यह वास्तविकता है। यथा = जैसे। सुदीप्तात् = अच्छी तरह प्रज्वलित। पावकात् = अग्नि से। विस्फुलिङ्गाः = अग्नि-कण, चिंगारियाँ। सहस्रशः = हजारों की संख्या में। प्रभवन्ते = निकलते हैं। सरूपाः = उसी के समान रूप वाली। तथा = वैसे ही। अक्षरात् = अविनाशी ब्रह्म से। विविधाः = विभिन्न प्रकार के सौम्य = हे प्रियदर्शन!| भावाः = पदार्थ। प्रजायन्ते = उत्पन्न होते हैं। तत्र च एव = और उसमें ही। अपियन्ति = विलीन हो जाते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में अविनाशी ब्रह्म से संसार की उत्पत्ति का वर्णन दृष्टान्तसहित किया गया है।

अन्वय सौम्य! तत् एतत् सत्यं यथा सुदीप्तात् पावकात् सरूपाः सहस्रशः विस्फुलिङ्गाः प्रभवन्ते, तथा अक्षरात् विविधाः भावाः प्रजायन्ते, तत्र च एव अपियन्ति।।

व्याख्या हे प्रियदर्शन! यह सत्य है कि जिस प्रकार अच्छी तरह ये जली हुई अग्नि से उसी के समान रूप वाली हजारों अग्नि की चिंगारियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार अविनाश ब्रह्म से अनेक प्रकार के अस्तित्व वाले पदार्थ उत्पन्न होते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं।

(12)
यथा नद्यः स्यन्दमाना समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ [2013]

शब्दार्थ यथा = जैसे। नद्यः = नदियाँ। स्यन्दमानः = बहती हुई। समुद्रे = समुद्र में। अस्तं गच्छन्ति = विलीन हो जाती हैं। नामरूपे = नाम और रूप को। विहाय = छोड़कर तथा = वैसे ही। विद्वान् = ब्रह्मज्ञानी, आत्मज्ञानी। नामरूपाद् विमुक्तः = नाम और रूप से छूटा हुआ। परात्परम् = श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ। पुरुषं = पुरुष को। उपैति = प्राप्त कर लेता है। दिव्यं = दिव्य

प्रसंगे प्रस्तुत मन्त्र में ब्रह्मवेत्ता विद्वान् द्वारा अविनाशी ब्रह्म की प्राप्ति का दृष्टान्तसहित वर्णन किया गया है।

अन्वय यथा स्यन्दमाना: नद्यः नामरूपे विहाय समुद्रे अस्तं गच्छन्ति, तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं दिव्यं पुरुषम् उपैति।

व्याख्या जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ अपने नाम और रूप को छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी विद्वान् अपने नाम और रूप से विमुक्त होकर श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ दिव्य पुरुष को प्राप्त करता है अर्थात् परमात्मा में विलीन हो जाता है।

(13)
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥

शब्दार्थ यस्तु (यः + तु) = और जो। सर्वाणि भूतानि = सभी प्राणियों को। आत्मनि एव = आत्मा में ही। अनुपश्यति = देखता है। सर्वभूतेषु = सभी प्राणियों में। च आत्मानं = और स्वयं को। ततः = उन सबसे। विजुगुप्सते = घृणा करता है।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की स्थिति का वर्णन किया गया है।

अन्वय य: तु सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति, आत्मानं च सर्वभूतेषु (पश्यति), (स:) ततः न विजुगुप्सते।।

व्याख्या जो (ब्रह्मज्ञानी पुरुष) सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में ही देखता है और अपनी आत्मा को सभी प्राणियों में देखता है, वह उससे घृणा नहीं करता है। तात्पर्य यह है कि जो आत्मा मुझमें है वही आत्मा दूसरे में भी है और जो आत्मा दूसरे में है वही मुझमें भी है; अर्थात् मुझमें और अन्य में भेद नहीं है। यह रहस्य ब्रह्मज्ञानी जान लेता है, इसलिए वह किसी से घृणा नहीं करता।

(14)
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मत्र्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ [2010]

शब्दार्थ यदा = जब। सर्वे = सभी (इच्छाएँ)। प्रमुच्यन्ते = छूट जाती हैं। कामाः = इच्छाएँ, कामनाएँ। ये = जो। अस्य = इसके अर्थात् मरणशील मनुष्य के। हृदि = हृदय में। श्रिताः = आश्रित। अथ = तबे, इसके बाद। मर्त्यः = मरणशील भी। अमृतेः भवति = अमर हो जाता है। अत्र = यहाँ, इस स्थिति में। समश्नुते = प्राप्त करता है, भली-भाँति अनुभव कर लेता है।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में ब्रह्म की उपलब्धि के श्रेष्ठ साधन का वर्णन किया गया है।

अन्वय यदा सर्वे कामाः, ये अस्य हृदि श्रिताः (सन्ति), प्रमुच्यन्ते। अथ मर्त्यः अमृतः भवति। अत्र ब्रह्म समश्नुते।

व्याख्या जब सभी कामनाएँ, जो इसके अर्थात् ब्रह्मज्ञानी के हृदय में आश्रित हैं, छूट जाती हैं, अर्थात् ब्रह्मज्ञानी के हृदय की सभी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, तब मनुष्य अमृत (न मरने वाला) हो जाता है। इस स्थिति में वह ब्रह्म का भली-भाँति अनुभव कर लेता है।

(15)
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥

शब्दार्थ वेद= जानता हूँ। अहं = मैं। एतं = इस पुरुषं महान्तं = महापुरुष को। आदित्यवर्णम् = सूर्य के समान वर्ण वाले, स्वयं प्रकाशस्वरूप। तमसः = अज्ञानरूपी अन्धकार से। परस्तात् = परे। तम् एव = उसको ही। विदित्वा = जानकर) अति मृत्युम् एति = मृत्यु का अतिक्रमण कर जाता है, पार कर जाता है। न = नहीं है। अन्यः = दूसरा| पन्थाः = मार्ग। विद्यते = विद्यमान अयनाय = जाने के लिए, परम पद पर पहुँचने के लिए।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में ब्रह्मज्ञानी पुरुष के स्वानुभव का वर्णन किया गया है।

अन्वय अहम् तमसः परस्तात् आदित्यवर्णम् एतं महान्तं पुरुषं ६, तम् एव विदित्वा मृत्युम् अति एति। अयनाय अन्यः पन्थाः न विद्यते।

व्याख्या मैं (ब्रह्मज्ञानी) अज्ञानरूपी अन्धकार से परे सूर्य के समान वर्ण वाले अर्थात् स्वयं प्रकाशस्वरूप इस महान् पुरुष को जानता हूँ। उसी को जानकर ज्ञानी पुरुष मृत्यु को पार कर जाता है अर्थात् उस लोक में पहुँच जाता है, जहाँ मृत्यु नहीं है। (परमपद पर) जाने के लिए अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी लोग उस स्वयं प्रकाशस्वरूप ब्रह्म को जानकर ही मृत्यु को पारकर उस लोक में पहुँच जाते हैं, जहाँ मृत्यु होती ही नहीं। मुक्ति पाने का ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) यथा देवे तथा गुरौ। [2008, 10, 11, 12, 13, 15)

सन्दर्भ
यह सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘उपनिषत्-सुधा’ नामक पाठ से उद्धृत है।।

[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में भगवद्भक्ति और गुरुभक्ति की महिमा का वर्णन किया गया है।

अर्थ जैसी भक्ति परमात्मा में हो वैसी ही गुरु में भी होनी चाहिए।

व्याख्या भगवान् में उच्चकोटि की भक्ति रखने वाले ज्ञानी पुरुष की यदि भगवान् के समान ही उच्चकोटि की भक्ति गुरु में भी हो तो वेदों और उपनिषदों का ज्ञान उसे स्वयं ही स्वाभाविक रूप से हो जाता है। तात्पर्य यह है कि देवता के तुल्य गुरु में भी श्रद्धा रखें बिना ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसीलिए सन्त कबीर गुरु को देवता से भी श्रेष्ठ मानते हुए कहते हैं

गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोबिन्द दियो बताय॥

(2), अशुद्धं कामसङ्कल्पम्।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में मन के एक प्रकार का उल्लेख किया गया है।

अर्थ कामनाओं से युक्त मन अशुद्ध होता है।

व्याख्या शास्त्रकारों ने दो प्रकार के मन बताये हैं-शुद्ध और अशुद्ध। कामनाओं से रहित मन को शुद्ध और कामनाओं से युक्त मन को अशुद्ध बताया गया है। यहाँ पर मन से आशय मानसिक स्थिति के साथ-साथ हृदय से भी है। सामान्य अनुभव के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि जब कोई भी सामग्री किसी पात्र में भरकर रख दी जाती है तो उसके दूषित हो जाने की सम्भावना बन जाती है। दूषित होने की यह प्रक्रिया एक मास में हो सकती है, एक वर्ष में भी और दस वर्ष में भी। आशय यह है कि संगृहीत अर्थात् रखी हुई का एक-न-एक दिन दूषित होना अवश्यम्भावी है। इसीलिए कामनाओं और इच्छाओं से युक्त मन को अशुद्ध बताया गया है। कामनाएँ चाहे अच्छी हों या बुरी, मन में इनकी दीर्घकालीन उपस्थिति निश्चित ही विकृति उत्पन्न करती है। यही कारण है कि कामनाओं से युक्त मन बन्धन को और कामनाओं से रहित मन मोक्ष का कारण होता है।

(3) मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। [2006,08,09, 10, 11, 12, 13, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में उपनिषद्कार ने मन को बन्धन और मोक्ष का कारण बताया है।

अर्थ मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है।

व्याख्या सांसारिक आवागमन तथा विषयों में आसक्ति को बन्धन कहा जाता है और इन सबसे छुटकारा पाने को मोक्ष। मनुष्य में इस बन्धन और मोक्ष का एकमात्र कारण मन ही है; क्योंकि मन ही इन्द्रियों को विषयों की ओर ले जाता है और वही उसे विषयों से पृथक् भी करता है। यदि व्यक्ति का मन सांसारिक विषयों में रमण करता है तो वह आवागमन के बन्धन में बँधा रहता है और यदि उसका मन विषयों में न रमकर भगवद्-भक्ति में रमता है तो उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि मन ही मोक्ष और बन्धन का कारण है।

(4) हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। [2010, 12, 13]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है कि सूर्य के रूप में चमकने गतेज वस्तुत: परमेश्वर का ही तेज है।

अर्थ (हे पूषन् अर्थात् सूर्यदेव! तुम्हारे) चमकीले आभामण्डल में स्थित सत्य (परमेश्वर) का मुख सोने जैसे चमकते हुए पात्र से आच्छादित है।

व्याख्या सूर्य की उपासना करता हुआ आराधक कहता है कि हे सूर्यदेव! आपका यह जो सुनहरा आभा-मण्डल है वह सत्य-स्वरूप परमेश्वर का ही तेज है। यह आपके अन्दर से इस प्रकार चमक रहा है, जैसे वह सोने के चमकीले मुंह वाले बर्तन के भीतर रखा हो और उस बर्तन के मुख से बाहर अपनी आभा चमक बिखेर रहा हो।

(5) न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं। [2011]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है।

अर्थ न वहाँ सूर्य चमकता है, न चन्द्रमा-तारे।

व्याख्या परमपिता परमात्मा ही सर्वशक्तिमान है और प्रकाश के एकमात्र स्रोत भी। उनके बिनाः न तो इस लोक में और न ही परलोक में; न तो सूर्य चमकता है न ही चन्द्रमा और न तारे ही चमकते हैं। उनके प्रकाश से ही संसार की सभी वस्तुएँ चमकती हैं अर्थात् प्रकाशित होती हैं। आशय यह है कि परमेश्वर की कृपा प्रसाद के बने रहने तक ही इस संसार का अस्तित्व है। उनकी कृपा के न रहने पर सब कुछ समाप्त हो जाता है।

(6) तस्य भासा सर्वमिदं विभाति। [2008, 10, 11]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में परमात्मा की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।

अर्थ “यह सब कुछ उसकी दीप्ति से प्रकाशित होता है।

व्याख्या प्रस्तुत सूक्ति का आशय है कि ईश्वर स्वयं प्रकाशयुक्त है और सब कुछ उसके प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी है वह सब कुछ उसी परमात्मा, परमब्रह्म, ईश्वर का ही लीला-विलास है। विश्व के सभी धर्मों में इसी बात को अपने-अपने ढंग से बताया गया है। किसी विद्वान् ने तो यहाँ तक कह दिया है कि यह सम्पूर्ण चराचर जगत् एक रंगमंच के समान है और हम सब उस रंगमंच की कठपुतलियाँ मात्र हैं। हम सभी की डोर परमात्मा के हाथ में है। वह जब तक चाहता है और जैसे चाहता है, हमें नचाता है; अर्थात् सभी कार्य उसी के पूर्ण नियन्त्रण में संचालित होते हैं। उसकी इच्छा के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। प्रस्तुत सूक्ति को यह कथन कि सब कुछ उसकी दीप्ति से ही दीपित है, पूर्णतया सत्य है।

(7) तस्मै देवाय नमो नमः। [2007]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में परमात्मा को बार-बार प्रणाम किया गया है।

अर्थ उस देवता को बार-बार प्रणाम है।

व्याख्या संस्कृत वाङमय के अनुसार ‘देव’ शब्द के अनेक अर्थ है; उदाहरणार्थ-देवता अर्थात् स्वर्ग में रहने वाले, अमर, सुर, राजा, मेघ, पूज्य व्यक्ति, पारद या पारा, ब्राह्मणों की एक उपाधि, देवदार, तेजोमय व्यक्ति, ज्ञानेन्द्रिय आदि। प्रस्तुत सूक्ति जो कि श्लोक-“यो देवौग्नो योऽप्सु, यो विश्वं भुवनमा विवेश। य ओषधीषु य वनस्पतिषु, तस्मै देवाय नमो नमः॥”-का अंश है, में ऐसे ईश्वर को बार-बार प्रणाम किया गया है जो अग्नि, जल, समस्त जीवलोक, ओषधियों और वनस्पतियों में समाया हुआ है। ऐसे सर्वव्यापी जगन्नियन्ती परमेश्वर के लिए कहा गया है कि वह एक है—एको देवः केशवो वा शिवो वा।

(8) नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। [2006]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है कि मोक्ष-प्राप्ति के लिए ब्रह्म-ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है।

अर्थ परमपद पर पहुँचने के लिए ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त दूसरा मार्ग नहीं है।

व्याख्या मनुष्य का सबसे बड़ा पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए विभिन्न धर्मों में अनेक मार्ग बताये गये हैं। ऋषियों ने ब्रह्मज्ञान को मोक्ष-प्राप्ति का सुगम साधन बताया है। ब्रह्म को जानकर ही जीवात्मा मृत्यु को पार करके मुक्त हो जाती है। ब्रह्मज्ञान को छोड़कर मुक्ति-प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है। अत: उस प्रकाशस्वरूप परमात्मा को ही जानने का प्रयास करना चाहिए।

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) यस्य देवे …………………………………………………….. ” महात्मनः ॥ (श्लोक 1) (2009)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके ऋषिः कथयति यत् यस्य पुरुषस्य दे पराभक्तिः तथा च देवे गुरौ अपि च भक्ति: विद्यते, तस्य महापुरुषस्य हृदये उपनिषत्सु वर्णितः विषयाः सर्वे अर्था: प्रकाशन्ते।

(2) मनो हि द्विविधं …………………………………………………….. कामविवर्जितम् ॥ (श्लोक 3) [2009, 10, 11]
संस्कृतार्थः अस्मिन् मन्त्रे ऋषिः कथयति यत् मनः द्विविधं प्रोक्तम्–शुद्धं च अशुद्धं च। अशुद्धं मनः सकामं सङ्कल्पं च भवति एवमेव शुद्धं मन: कामरहितं भवति।

(3) मन एव मनुष्याणां …………………………………………………….. निर्विषयं स्मृतम्॥ (श्लोक 4) [2006, 07]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके कविः अकथयत् यत् मनुष्याणां दु:खबन्धयोः एकमात्रकारणं मन एवं अस्ति। विषयवासनासुरमण: मनः दु:खबन्धाय भवति, विषयवासनारहितः मनः मुक्त्यै (मोक्षाय) स्मृतम् (कथितम्)।।

(4) एको वशी …………………………………………………….. शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ (श्लोक 6)
संस्कृतार्थः अस्मिन् मन्त्रे ऋषिः कथयति यः परमात्मा सर्वेषां भूतानाम् अन्तरात्मा, अद्वितीयः, अखिलं संसारं स्ववशी कर्तुं समर्थः, यः स्व एकं रूपं विविधरूपेण अभिव्यक्ति; ये धीराः तम् आत्मस्थं साक्षात् अनुभवन्ति, शाश्वतं सुखं भवति, इतरेषां न भवति।

(5) न तत्र सूर्यो …………………………………………………….. सर्वमिदं विभाति ॥ (श्लोक 7) [2009]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके मुनिः कथयति यत् तत्र परलोके न सूर्यः भाति, न चन्द्रतारकं भाति, न इमाः विद्युताः भान्ति। तर्हि अयम् अग्नि कुतः प्रकाशितः भविष्यति। तं परमेश्वरम् एव भान्तम् अखिलं विश्वम् अनुभाति, तस्य परमेश्वरस्य भासा इदं सर्वं विभाति।

(6) यो देवोऽग्नौ …………………………………………………….. देवाय नमो नमः ॥ (श्लोक 8) [2014]
संस्कृतार्थः अस्मिन् मन्त्रे ऋषिः कथयति-य: ईश्वर: अग्नौ अस्ति, य: अप्सु अस्ति, य: विश्वं लोकम् आविवेश, यः ओषधीषु अस्ति, य: वनस्पतिषु अस्ति, तस्मै देवाय नमो नमः अस्तु।

(7) भयादस्याग्निस्तपति …………………………………………………….. मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥ (श्लोक 9)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके ऋषिः कथयति यत् अस्य सर्वव्यापकस्य परमात्मनः भयात् अग्निः, अस्य भयात् सूर्यः तपति, अस्य भयात् इन्द्रः च वायुः च पञ्चमः मृत्युः धावति। अस्मिन् संसारे गतिशीलता ईश्वरेण . एव अस्ति इति भावः।

(8) अपाणिपादो जवनो …………………………………………………….. पुरुषं महान्तम् ॥ (श्लोक 10) (2015)
संस्कृतार्थः अस्मिन् मन्त्रे ऋषिः कथयति यत् सः परमात्मा सर्वं वेत्ति। तस्य कोऽपि वेत्ता नास्ति। तं महान्तं पुरुषं आहुः। सः आत्मा इन्द्रियैः रहित: अपि जनां गृह्णाति, चक्षुर्विना पश्यति, कर्ण विना श्रृंणोति। स एवं परमः पुरुषः। तस्य महत्तमं किञ्चिद् नास्ति। …

(9) यथा नद्यः स्यन्दमानाः …………………………………………………….. पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ (श्लोक 12)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः कथयति-यथा पर्वतात् निर्गताः नद्यः स्वकीय नामरूपे त्यक्त्वा समुद्रं गत्वा विलीयन्ते तथा एव विद्वान् पुरुष: नामरूपात् विमुक्ताः सन् परात्परं दिव्यं पुरुषं परमेश्वरं प्राप्नोति।

(10) यस्तु सर्वाणि …………………………………………………….. न विजुगुप्सते ॥ (श्लोक 13)
संस्कृतार्थः अस्मिन् मन्त्रे महर्षिः कथयति-य: पुरुष: सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति तथा च सर्वभूतेषु आत्मानम् एव मन्यते, सः पुरुषः तान् प्रति घृणां न करोति।

(11) यदा सर्वे …………………………………………………….. ब्रह्म समश्नुते ॥ (श्लोक 14)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः कथयति—अस्य पुरुषस्य हृदये ये कामभावाः सन्ति, ते सर्वे भावाः यदा हृदयात् बहिः निर्गच्छन्ति तदा सः मर्त्यः पुरुषः अमरः भवति। अनन्तरं ब्रह्मानन्दं प्राप्नोति।

(12) वेदाहमेतं …………………………………………………….. विद्यतेऽयनाय ॥ (श्लोक 15)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः कथयति—यः पुरुषः अज्ञानान्धकारात् बहिः वर्तते, यस्य स्वरूपं प्रकाशस्वरूपं भवति तथाविधं महान्तं पुरुषं अहं जानामि। तं प्रकाशस्वरूपं ज्ञात्वा एवं जनाः मृत्युपाशात् मुक्तो भवति। मोक्ष प्राप्तये न अन्यः कश्चित् पन्थाः विद्यते।

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