UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 क्या लिखें? (गद्य खंड)

In this chapter, we provide UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 क्या लिखें? (गद्य खंड), Which will very helpful for every student in their exams. Students can download the latest UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 क्या लिखें? (गद्य खंड) pdf, free UP Board Solutions Class 10 Hindi Chapter 3 क्या लिखें? (गद्य खंड) pdf download. Now you will get step by step solution to each question. Up board solutions Class 10 Hindi पीडीऍफ़

जीवन-परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न 1.
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के जीवन-परिचय एवं रचनाओं पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी एक रचना का नाम लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 17]
उत्तर
प्रचार से दूर हिन्दी के मौन साधक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी हिन्दी के प्रतिष्ठित निबन्धकार, कवि, सम्पादक तथा साहित्य मर्मज्ञ थे। साहित्य-सृजन की प्रेरणा आपको विरासत में मिली थी, जिसके कारण आपने विद्यार्थी जीवन से ही लिखना प्रारम्भ कर दिया था। ललित निबन्धों के लेखन के लिए आपको प्रभूत यश प्राप्त हुआ। एक गम्भीर विचारक, शिष्ट हास्य-व्यंग्यकार और कुशल आलोचक के रूप में आप हिन्दी-साहित्य में विख्यात हैं।

जीवन-परिचय-श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का जन्म सन् 1894 ई० में मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले के खैरागढ़ नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता श्री उमराव बख्शी तथा बाबा पुन्नालाल बख्शी साहित्य-प्रेमी और कवि थे। इनकी माताजी को भी साहित्य से प्रेम था। अतः परिवार के साहित्यिक वातावरण का प्रभाव इनके मन पर भी गहरा पड़ा और ये विद्यार्थी जीवन से ही कविताएँ लिखने लगे। बी०ए० उत्तीर्ण करने के बाद बख्शी जी ने साहित्य-सेवा को अपना लक्ष्य बनाया तथा कहानियाँ और कविताएँ लिखने लगे। द्विवेदी जी बख्शी जी की रचनाओं और योग्यताओं से इतने अधिक प्रभावित थे कि अपने बाद उन्होंने ‘सरस्वती’ की बागडोर बख्शी जी को ही सौंपी। द्विवेदी जी के बाद 1920 से 1927 ई० तक इन्होंने कुशलतापूर्वक ‘सरस्वती’ के सम्पादन का कार्य किया। ये नम्र स्वभाव के व्यक्ति थे और ख्याति से दूर रहते थे। खैरागढ़ के हाईस्कूल में अध्यापन कार्य करने के पश्चात् इन्होंने पुनः ‘सरस्वती’ का सम्पादन-भार सँभाला। सन् 1971 ई० में 77 वर्ष की आयु में निरन्तर साहित्य-सेवा करते हुए आप गोलोकवासी हो गये। |

कृतियाँ-बख्शी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने निबन्ध, काव्य, कहानी, आलोचना, नाटक आदि पर अपनी लेखनी चलायी। निबन्ध और आलोचना के क्षेत्र में तो ये प्रसिद्ध हैं ही, अपने ललित निबन्धों के कारण भी ये विशेष रूप से स्मरण किये जाते हैं। इनकी रचनाओं का विवरण अग्रलिखित है

  1. निबन्ध-संग्रह-‘पंचपात्र’, ‘पद्मवन’, ‘तीर्थरेणु’, ‘प्रबन्ध-पारिजात’, ‘कुछ बिखरे पन्ने, ‘मकरन्द बिन्दु’, ‘यात्री’, ‘तुम्हारे लिए’, ‘तीर्थ-सलिल’ आदि। इनके निबन्ध जीवन, समाज, धर्म, संस्कृति और साहित्य के विषयों पर लिखे गये हैं। |
  2. काव्य-संग्रह-‘शतदल’ और ‘अश्रुदल’ इनके दो काव्य-संग्रह हैं। इनकी कविताएँ प्रकृति और प्रेमविषयक हैं।
  3. कहानी-संग्रह-‘झलमला’ और ‘अञ्जलि’, इनके दो कहानी-संग्रह हैं। इन कहानियों में मानव-जीवन की विषमताओं का चित्रण है।
  4. आलोचना-‘हिन्दी-साहित्य विमर्श’, ‘विश्व-साहित्य’, ‘हिन्दी उपन्यास साहित्य’, ‘हिन्दी कहानी साहित्य, साहित्य शिक्षा’ आदि इनकी श्रेष्ठ आलोचनात्मक पुस्तकें हैं।
  5. अनूदित रचनाएँ–जर्मनी के मॉरिस मेटरलिंक के दो नाटकों का ‘प्रायश्चित्त’ और ‘उन्मुक्ति का बन्धन’ शीर्षक से अनुवाद।
  6. सम्पादन-‘सरस्वती’ और ‘छाया’। इन्होंने सरस्वती के सम्पादन से विशेष यश अर्जित किया।
    साहित्य में स्थान-बख्शी जी भावुक कवि, श्रेष्ठ निबन्धकार, निष्पक्ष आलोचक, कुशल पत्रकार एवं कहानीकार हैं। आलोचना और निबन्ध के क्षेत्र में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। विश्व-साहित्य में इनकी गहरी पैठ है। अपने ललित निबन्धों के लिए ये सदैव स्मरण किये जाएँगे। विचारों की मौलिकता और शैली की नूतनता के कारण हिन्दी-साहित्य में शुक्ल युग के निबन्धकारों में इनके निबन्धों को विशिष्ट स्थान है।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्न,

प्रश्न-पत्र में केवल 3 प्रश्न (अ, ब, स) ही पूछे जाएँगे। अतिरिक्त प्रश्न अभ्यास एवं परीक्षोपयोगी दृष्टि से |महत्त्वपूर्ण होने के कारण दिए गये हैं।
प्रश्न 1.
अंग्रेजी के प्रसिद्ध निबन्ध-लेखक ए० जी० गार्डिनर का कथन है कि लिखने की एक विशेष मानसिक स्थिति होती है। उस समय मन में कुछ ऐसी उमंग-सी उठती है, हृदय में कुछ ऐसी स्फूर्ति-सी आती है, मस्तिष्क में कुछ ऐसा आवेग-सा उत्पन्न होता है कि लेख लिखना ही पड़ता है। उस समय विषय की चिन्ता नहीं रहती। कोई भी विषय हो, उसमें हम अपने हृदय के आवेग को भर ही देते हैं। हैट टाँगने के लिए कोई भी ख़ुटी काम दे सकती है। उसी तरह अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए कोई भी विषय उपयुक्त है। असली वस्तु है हैट, खूटी नहीं। इसी तरह मन के भाव ही तो यथार्थ वस्तु हैं, विषय नहीं।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. ‘हैट’ और ‘ख़ुटी’ का उदाहरण इस गद्यांश में क्यों दिया गया हैं ? स्पष्ट कीजिए।
  2. विशेष मानसिक स्थिति में क्या होता है ?
  3. मनोभावों को व्यक्त करने के लिए किसकी आवश्यकता होती है ?

[ उमंग = उल्लास, उत्साह अथवा आनन्द की स्थिति। स्फूर्ति = (शारीरिक एवं मानसिक) ताजगी।, आवेग = मानसिक उत्तेजना या उत्कट भावना।]
उत्तर
(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड में संकलित तथा श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी द्वारा लिखित ‘क्या लिखें ?’ शीर्षक ललित निबन्ध से उद्धृत है।
अथवा निम्नवत् लिखें-
पाठ का नाम क्या लिखें? लेखक का नाम-श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी।
[ विशेष—इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए इस प्रश्न का यही उत्तर इसी रूप में प्रयुक्त होगा।]

( ब ) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–ए० जी० गार्डिनर अंग्रेजी के प्रसिद्ध निबन्धकार हुए हैं। उन्होंने कहा है कि मन की विशेष स्थिति में ही निबन्ध लिखा जाता है। उसके लिए मन के भाव ही यथार्थ होते हैं, विषय नहीं। मनोभावों को व्यक्त करने के लिए कोई भी विषय उपयुक्त हो सकता है। निबन्ध लिखने की विशेष मनोदशा के सम्बन्ध में उनका कहना है कि उस समय मन में एक विशेष प्रकार का उत्साह और स्फूर्ति आती है और मस्तिष्क में एक विशेष प्रकार की आवेगपूर्ण स्थिति बनती है और उस आवेग को उमंग के कारण विषय की चिन्ता किये बिना निबन्ध लिखने को बाध्य होना ही पड़ता है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–श्री ए० जी० गार्डिनर के कथन को विस्तार देते हुए पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी कहते हैं कि कोई भी विषय हो लेखक उसमें अपने हृदय के आवेग को भर ही देता है। सामान्य से सामान्य विषय भी लेखक और उसके मानसिक आवेग द्वारा विशिष्ट बना दिया जाता है। उदाहरण के लिए जिस प्रकार एक हैट को टॉगने के लिए किसी भी खूटी का प्रयोग किया जा सकता है, उसी प्रकार हृदय के अनेक भाव किसी भी विषय पर व्यवस्थित रूप में व्यक्त किये जा सकते हैं। अतः असली वस्तु हैट है न कि ख़ुटी। यही अवस्था साहित्य-रचना में भी होती है; अर्थात् मन के भावे ही असली वस्तु हैं, विषय अथवा शीर्षक नहीं। तात्पर्य यह है कि यदि हृदय में भाव एवं विचार हों तो किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में हैट का उदाहरण मनोभावों के लिए दिया गया है और ख़ुटी का विषय के लिए। गार्डिनर महोदय के अनुसार जिस प्रकार मुख्य वस्तु हैट होती है, ख़ुटी नहीं उसी प्रकार मन के भावविचार मुख्य हैं, विषय नहीं। आशय यह है कि यदि मन में भाव एवं विचार हों तो किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है।
  2. विशेष मानसिक स्थिति में व्यक्ति के मन में उमंग उठती है, हृदय में स्फूर्ति आती है और मस्तिष्क में कुछ ऐसा आवेग उत्पन्न होता है कि व्यक्ति उसे अभिव्यक्ति देने के लिए लिखने बैठ जाता है।
  3. मनोभावों को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त विषय की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 2.
उन्होंने स्वयं जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया, उसी को अपने निबन्धों में लिपिबद्ध कर दिया। ऐसे निबन्धों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे मन की स्वच्छन्द रचनाएँ हैं। उनमें न कवि की उदात्त कल्पना रहती है, न आख्यायिका-लेखक की सूक्ष्म दृष्टि और न विज्ञों की गम्भीर तर्कपूर्ण विवेचना। उनमें लेखक की सच्ची अनुभूति रहती है। उनमें उसके सच्चे भावों की सच्ची अभिव्यक्ति होती है, उनमें उसका उल्लास रहता है। ये निबन्ध तो उस मानसिक स्थिति में लिखे जाते हैं, जिसमें न ज्ञान की गरिमा रहती है और न कल्पना की महिमा, जिसमें हम संसार को अपनी ही दृष्टि से देखते हैं और अपने ही भाव से ग्रहण करते हैं। [2017]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. निबन्ध किस मानसिक स्थिति में लिखे जाते हैं ?
  2. मॉनटेन की शैली के निबन्धों की विशेषता क्या है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस शैली के निबन्धों की विशेषता बतायी है ?

उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी लिखते हैं कि मॉनटेन के अनुसार स्वच्छन्दतावादी शैली में लिखे गये निबन्धों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि ऐसे निबन्ध लेखक के हृदय की बन्धनमुक्त रचनाएँ होते हैं। इसमें कवि के समान उच्च कल्पनाएँ और किसी कहानी लेखक के समान सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता नहीं होती और न ही विद्वानों के समान गम्भीर तर्कपूर्ण विवेचना की आवश्यकता होती है। इसमें लेखक अपने मन की सच्ची भावनाओं को स्वतन्त्रता और प्रसन्नता के साथ व्यक्त करता है। इन निबन्धों को लिखते समय लेखक पाण्डित्य-प्रदर्शन की अवस्था से भी दूर रहता है। वह अपने भावों को जिस रूप में चाहता है, उसी रूप में अभिव्यक्त करता है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी लिखते हैं कि स्वच्छन्दतावादी शैली में लिखे गये निबन्धों में लेखक अपने मन में उठने वाले भावों को ज्यों-का-त्यों व्यक्त कर देता है। इन निबन्धों में न ही ज्ञान की गुरुता निहित होती है और न ही कल्पना की उड़ान। ये निबन्ध लेखक के मन के सच्चे उद्गार होते हैं। वह संसार का जैसा अनुभव करता है और जिस रूप में देखता है। बिना उसमें आलंकारिकता व पाण्डित्य-प्रदर्शन के उसी रूप में व्यक्त कर देता है। |
(स)

  1. निबन्ध ऐसी मानसिक स्थिति में लिखे जाते हैं जिसमें न तो ज्ञान का गौरव निहित होता है। और न ही कल्पना की ऊँची उड़ान। निबन्ध में लेखक अपने ही विचारों की अभिव्यक्ति करता है।
  2. नटेन की शैली के निबन्धों की विशेषता है कि वे लेखक के हृदय की बन्धनमुक्त रचनाएँ हैं। जिनमें लेखक की वास्तविक अनुभूति और उसके भावों का वास्तविक प्रकटीकरण होता है।
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने स्वच्छन्दतावादी (बन्धनमुक्त) शैली के निबन्धों की विशेषता बतायी है। और स्पष्ट किया है कि इन निबन्धों में बनावट, ऊँची कल्पना और तर्कपूर्ण विवेचना नहीं होती।

प्रश्न 3.
दूर के ढोल सुहावने होते हैं; क्योंकि उनकी कर्कशता दूर तक नहीं पहुँचती। जब ढोल के पास बैठे। हुए लोगों के कान के पर्दे फटते रहते हैं, तब दूर किसी नदी के तट पर, संध्या समय, किसी दूसरे के कान में वही शब्द मधुरता का संचार कर देते हैं। ढोल के उन्हीं शब्दों को सुनकर वह अपने हृदय में किसी के विवाहोत्सव का चित्र अंकित कर लेता है। कोलाहल से पूर्ण घर के एक कोने में बैठी हुई किसी लज्जाशीला ‘नव-वधू की कल्पना वह अपने मन में कर लेता है। उस नव-वधू के प्रेम, उल्लास, संकोच, आशंका और विषाद से युक्त हृदय के कम्पन ढोल की कर्कश ध्वनि को मधुर बना देते हैं; क्योंकि उसके साथ आनन्द का कलरव, उत्सव व प्रमोद और प्रेम का संगीत ये तीनों मिले रहते हैं। तभी उसकी कर्कशता समीपस्थ लोगों को भी कटु नहीं प्रतीत होती और दूरस्थ लोगों के लिए तो वह अत्यन्त मधुर बन जाती है। [2010, 13]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत अंश में ‘दूर के ढोल’ और ‘नव-वधू’ में साम्य और वैषम्य बताइए।
  2. ढोल की आवाज किसके लिए कर्कश होती है और किसके लिए मधुर ?
  3. ढोल की कर्कश ध्वनि को कौन मधुर बना देता है और क्यों ?
  4. दूर के ढोल सुहावने क्यों होते हैं ?

[ ढोल = एक प्रकार का वाद्य। सुहावना = अच्छा लगने वाला। कर्कशता = कर्णकटुता। कोलाहल = शोरगुल। आशंका = सन्देह। कलरव = (चिड़ियों की) मधुर ध्वनि।]
उत्तर.
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का कथन है कि दूर के ढोल इसलिए अच्छे लगते हैं क्योंकि उनकी कर्णकटु ध्वनि बहुत दूर तक नहीं पहुँचती है। जब वे बज रहे होते हैं तो समीप बैठे हुए लोगों के कान के पर्दे फाड़ रहे होते हैं जब कि दूर किसी भी नदी के किनारे सन्ध्याकालीन समय के शान्त वातावरण में बैठे हुए लोगों को अपने मधुर स्वर से प्रसन्न कर रहे होते हैं।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का कथन है कि ढोल की कर्कश ध्वनि दूर बैठे किसी व्यक्ति को प्रसन्न इसलिए करती है; क्योंकि वह अपने मन में कोलाहल से पूर्ण किसी घर के कोने में शादी के कारण लज्जाशील युवती की भी कल्पना करने लगता है। शादी की मधुर कल्पना, प्रेम, उल्लास (हर्ष), संकोच, सन्देह और दुःख से युक्त हृदय के कम्पन उस ढोल के कर्णकटु शब्दों को मधुर बना देते हैं। इसका कारण यह है कि उस नव-विवाहिता के हृदय में आनन्द का मधुर राग, उत्सव, विशेष प्रसन्नता और प्रेम का संगीत-ये तीनों तत्त्व एक साथ अवस्थित रहते हैं। कहने का भावे यह है कि यदि विवाह होने की प्रसन्नता, जीवन की मधुर कल्पनाएँ और प्रिय के प्रति प्रेम की भावना न हो तो नव-विवाहिता को भी विवाहोत्सव में बजने वाला ढोल सुहावना न लगे।
(स)

  1. ढोल की ध्वनि जब दूर से आती सुनाई देती है, उसी समय वह कानों में मधुरता का संचार करती है, लेकिन पास से सुनाई देने पर वह कानों के पर्दे भी फाड़ सकती है। लेकिन नव-वधू की कल्पना ” दोनों ही स्थितियों में–विवाहोत्सव में उपस्थित अथवा दूर बैठे विवाहोत्सव की कल्पना कर रहे–व्यक्ति के मन में मधुरता का संचार करती है और समीप बैठे रहने पर भी उसे ढोल की ध्वनि मधुर ही लगती है।
  2. ढोल की ध्वनि समीप बैठे व्यक्ति के लिए कर्कश होती है और दूर बैठे व्यक्ति के लिए मधुर। लेकिन जब समीप में बैठा व्यक्ति विवाहोत्सव में उपस्थित किसी नव-वधू की कल्पना अपने मन में कर लेता है, उस समय उसे ढोल की कर्कश ध्वनि भी मधुर ही सुनाई पड़ती है।
  3. ढोल की कर्कश ध्वनि को किसी नव-वधू के प्रेम, उल्लास, संकोच आदि भावों से युक्त हृदय के कम्पन मधुर बना देते हैं, क्योंकि उसके साथ आनन्द की मधुर ध्वनि, उत्सव का आनन्द और प्रेम का संगीत तीनों ही मिले-जुले रहते हैं।
  4. दूर के ढोल सुहावने इसलिए होते हैं क्योंकि कानों को कठोर लगने वाली उनकी कर्कश ध्वनि दूर तक नहीं पहुँचती। |

प्रश्न 4.
जो तरुण संसार के जीवन-संग्राम से दूर हैं, उन्हें संसार का चित्र बड़ा ही मनमोहक प्रतीत होता है, जो वृद्ध हो गये हैं, जो अपनी बाल्यावस्था और तरुणावस्था से दूर हट आये हैं, उन्हें अपने अतीतकाल की स्मृति बड़ी सुखद लगती है। वे अतीत का ही स्वप्न देखते हैं। तरुणों के लिए जैसे भविष्य उज्ज्वल होता है, वैसे ही वृद्धों के लिए अतीत। वर्तमान से दोनों को असन्तोष होता है। तरुण भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं और वृद्ध अतीत को खींचकर वर्तमान में देखना चाहते हैं। तरुण क्रान्ति के समर्थक होते हैं और वृद्ध अतीत-गौरव के संरक्षक। इन्हीं दोनों के कारण वर्तमान सदैव क्षुब्ध रहता है और इसी से वर्तमान काल सदैव सुधारों का काल बना रहता है।
[2009, 12, 15, 17]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. वर्तमान समय सदैव सुधारों का समय क्यों बना रहता है ?
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
  3. युवा और वृद्ध व्यक्तियों के वैचारिक अन्तर को स्पष्ट कीजिए। या तरुण और वृद्ध दोनों क्या चाहते हैं?
  4. संसार का चित्र किसे बड़ा मनमोहक प्रतीत होता है ?
  5. तरुण और वृद्ध दोनों क्या चाहते हैं ?

[ तरुण = युवक। अतीत = बीता समय। संरक्षक = रक्षा करने वाला। क्षुब्ध = दु:खी। ]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या--लेखक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी का कहना है कि जिन नौजवानों ने संसार के कष्टों, समस्याओं और कठिनाइयों का सामना नहीं किया, उन्हें यह संसार बड़ा आकर्षक और सुन्दर प्रतीत होता है; क्योंकि वे अपने उज्ज्वल भविष्य के स्वप्न देखते हैं, जीवन-संघर्षों से बहुत दूर रहते हैं और दूर के ढोल तो सभी को सुहावने लगते हैं। जो अपनी बाल्यावस्था और जवानी को पार करके अब वृद्ध हो गये हैं, वे बीते समय के गीत गाकर प्रसन्न होते हैं। नवयुवकों से भविष्य दूर होता है और वृद्धों से उनका बचपन बहुत दूर हो गया होता है। इसीलिए नवयुवकों को भविष्य तथा वृद्धों को अतीत प्रिय लगता है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री बख्शी जी का कहना है कि नवयुवक उत्साह और साहस के साथ वर्तमान को बदलना चाहते हैं और वृद्ध बीते हुए समय और उच्च सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करना चाहते हैं। इसी संघर्ष में दोनों का जीवन सदैव तनावपूर्ण रहता है। पर इससे लाभ यह है कि युवकों के प्रयास से वर्तमान काल में सुधार होते हैं और वृद्धों के प्रयास से गौरवपूर्ण संस्कृति की रक्षा होती है।
(स)

  1. वर्तमान समय सदैव सुधारों का समय इसलिए बना रहता है; क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह युवा हो अथवा वृद्ध, अपने वर्तमान से दुःखी होता है। युवा अपने भविष्य के सुखद स्वप्न देखते हैं और वृद्ध अपने अतीत के सुखों का गान करते हैं। वर्तमान किसी को अच्छा नहीं लगता; क्योंकि वह उनके सामने होता है। वस्तुत: जो भी हमें प्राप्त होता रहता है, हम प्राय: उससे असन्तुष्ट ही रहते हैं, इसलिए उसमें परिवर्तन करते रहते हैं। यही कारण है कि वर्तमान समय सदैव सुधारों का समय बना रहता है।
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक कहना चाहता है कि वृद्धों की सोच से हमारी संस्कॅति सुरक्षित रहती है। और युवाओं की सोच से वर्तमान में सुधार होते रहते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो आगे आने वाली पीढ़ियाँ सदैव एक ही अतीत को ढोती रहतीं।।
  3. युवाओं को भविष्य की स्मृति मनमोहक प्रतीत होती है और वृद्धों को अतीत की। युवाओं के लिए भविष्य उज्ज्वल होता है और वृद्धों के लिए अतीत। युवा भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं और वृद्ध अतीत को। युवा क्रान्ति के समर्थक होते हैं और वृद्ध अंतीत-गौरव के संरक्षक।
  4. संसार का चित्र ऐसे युवाओं को बड़ा ही आकर्षक प्रतीत होता है, जो जीवन रूपी संग्राम से बहुत दूर हैं; अर्थात् जिन्होंने संसार के कष्टों, समस्याओं और कठिनाइयों का सामना नहीं किया है।
  5. तरुण और वृद्ध दोनों ही वर्तमान से असन्तुष्ट होते हैं। तरुण भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं। और वृद्ध अतीत को। तरुण क्रान्ति का समर्थन करते हैं और वृद्ध अतीत के गौरव का संरक्षण।

प्रश्न 5.
मनुष्य जाति के इतिहास में कोई ऐसा काल ही नहीं हुआ, जब सुधारों की आवश्यकता न हुई हो। तभी तो आज तक कितने ही सुधारक हो गये हैं। पर सुधारों का अन्त कब हुआ? भारत के इतिहास में बुद्धदेव, महावीर स्वामी, नागार्जुन, शंकराचार्य, कबीर, नानक, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द और महात्मा गाँधी में ही सुधारकों की गणना समाप्त नहीं होती। सुधारकों का दल नगर-नगर और गाँव-गाँव में होता है। यह सच है कि जीवन में नये-नये क्षेत्र उत्पन्न होते जाते हैं और नये-नये सुधार हो जाते हैं। न दोषों का अन्त है और न सुधारों का। जो कभी सुधार थे, वही आज दोष हो गये हैं और उन सुधारों का फिर नव सुधार किया जाता है। तभी तो यह जीवन प्रगतिशील माना गया है। [2016]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. मनुष्य जाति के इतिहास में कब सुधारों की आवश्यकता नहीं हुई? कुछ प्रमुख सुधारकों के नाम लिखिए।
  2. “प्रत्येक वस्तु, पदार्थ, विचार परिवर्तनशील हैं’, इस सत्य का वर्णन करते हुए एक वाक्य लिखिए।
  3. जीवन प्रगतिशील क्यों माना गया है?

उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक का कथन है कि मानव-समाज विस्तृत है। इसमें सदैव सुधार होते रहते हैं। बुद्ध से गाँधी तक सुधारकों के एक बड़े समूह का जन्म इस देश में हुआ है। जीवन में दोषों की श्रृंखला बहुत लम्बी होती है। इसीलिए सुधारों का क्रम सदैव चलता रहता है। सुधारकों के दल प्रत्येक नगर और ग्राम में होते हैं। जीवन में अनेकानेक क्षेत्र होते हैं और नित नवीन उत्पन्न भी होते जाते हैं। प्रत्येक में कुछ दोष होते हैं, जिनमें सुधार अवश्यम्भावी होता है। सुधार किये जाने पर इनमें तात्कालिक सुधार तो हो जाता है परन्तु आगे चलकर कालक्रम में वे ही सुधार फिर दोष माने जाने लगते हैं और उनमें फिर से सुधार किये जाने की आवश्यकता प्रतीत होने लगती है। इसी सुधारक्रम और परिवर्तनशीलता से जीवन प्रगतिशील मना गया है।
(स)

  1. मनुष्य जाति के इतिहास में ऐसा कोई समय ही नहीं आया, जब सुधारों की आवश्यकता नहीं हुई। आशय यह है कि मनुष्य जाति के इतिहास में सदैव ही सुधारों की आवश्यकता होती रही है और होती रहेगी। कुछ प्रमुख समाज-सुधारकों के नाम हैं—गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, नागार्जुन आदि शंकराचार्य, कबीरदास, गुरु नानकदेव, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी, विनोबा भावे आदि।।
  2. “प्रत्येक वस्तु, पदार्थ, विचार परिवर्तनशील हैं’, इस सत्य का वर्णन करते हुए हम एक वाक्य लिख सकते हैं कि, “परिवर्तन प्रकृति का नियम है। मात्र परिवर्तन के अतिरिक्त सम्पूर्ण सृष्टि परिवर्तनशील है।”
  3. न दोषों का अन्त है और न सुधारों का। जो कभी सुधार थे, वही आज दोष हो गये हैं और उन सुधारों को फिर नव सुधार किया जाता है। तभी तो यह जीवन प्रगतिशील माना गया है।

प्रश्न 6.
हिन्दी में प्रगतिशील साहित्य का निर्माण हो रहा है। उसके निर्माता यह समझ रहे हैं कि उनके साहित्य में भविष्य का गौरव निहित है। पर कुछ ही समय के बाद उनका यह साहित्य भी अतीत का स्मारक हो जाएगा और आज जो तरुण हैं, वही वृद्ध होकर अतीत के गौरव का स्वप्न देखेंगे। उनके स्थान में तरुणों । का फिर दूसरा दल आ जाएगा, जो भविष्य का स्वप्न देखेगा। दोनों के ही स्वप्न सुखद होते हैं; क्योंकि दूर के ढोल सुहावने होते हैं।
[2010, 11, 14, 16, 18]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. “दूर के ढोल सुहावने क्यों होते हैं ?” स्पष्ट कीजिए।
  2. प्रस्तुत अवतरण में लेखक क्या कहना चाहता है ?
  3. प्रगतिशील साहित्य को अतीत का स्मारक क्यों कहा गया है।
  4. लेखक ने साहित्य के निर्माण में किन विशेषताओं का उल्लेख किया है?
  5. प्रगतिशील साहित्य-निर्माता क्या समझकर साहित्य-निर्माण कर रहे हैं?

[ निर्माण = रचना। निर्माता = बनाने वाला। निहित = छिपा हुआ। अतीत = भूतकाल। स्मारक = यादगार।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-विद्वान् लेखक श्री बख्शी जी साहित्यिक सुधार की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि युवा साहित्यकार वर्तमान में भूत और भविष्य का समन्वय करते हुए यह सोचकर प्रगतिवादी साहित्य की रचना कर रहे हैं क्योंकि उनके साहित्य में भविष्य के गौरव का वर्णन किया गया है; अत: भविष्य में उसमें सुधार की आवश्यकता नहीं होगी, किन्तु कुछ समय पश्चात् ही उनके सोचे की यह भव्य इमारत धराशायी हो जाएगी और आज के ये युवा लेखक भी एक दिन वृद्ध होकर अतीत का गुणगान करेंगे।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–साहित्यिक सुधार की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए विद्वान लेखक श्री बख्शी जी कहते हैं कि आज के युवा लेखक भी एक दिन वृद्ध होकर अतीत का गुणगान करेंगे। और उस समय के जो युवा साहित्यकार होंगे वे वर्तमान से असन्तुष्ट होकर कोई और नया साहित्य रचने लगेंगे। वे भी भविष्य के लिए चिन्तित होंगे। यह क्रम सनातन है। युवाओं से भविष्य दूर है और वृद्धों से अतीत; इसीलिए दोनों को ये सुखद लगते हैं। यह मानव स्वभाव है कि जो वस्तु उसकी पहुँच से दूर होती है, वह उसे अच्छी लगती है और वह उसे पाने का प्रयत्न करती रहता है। इसीलिए ‘दूर के ढोल सुहावने वाली कहावत चरितार्थ हुई है।
(स)

  1. युवाओं से भविष्य दूर है और वृद्धों से अतीत। इसीलिए दोनों को ये ही सुखद लगते हैं। यह मानव स्वभाव है कि जो वस्तु उसकी पहुँच से दूर होती है, वही उसे अच्छी लगती है और वह उसी को पाने का प्रयत्न भी करती है। इसीलिए कहा जाता है कि ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं।’
  2. प्रस्तुत अवतरण में लेखक का कहना है कि जो कुछ भी आज प्रासंगिक है, कल वही अप्रासंगिक हो जाएगा और उसमें सुधार की अपेक्षा की जाने लगेगी। यह अप्रासंगिकता और सुधार का क्रम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में और साहित्य में भी निरन्तर चलता रहता है।
  3. प्रगतिशील साहित्य को अतीत का स्मारक इसलिए कहा गया है कि वह भी कुछ समय बाद अतीत (बीती हुई) की वस्तु हो जाता है।
  4.  लेखक ने साहित्य के निर्माण में निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है
    • हिन्दी भाषा के अन्तर्गत प्रगतिशील साहित्य का निर्माण हो रहा है।
    • साहित्य में भविष्य का गौरव निहित होता है। |
  5.  प्रगतिशील साहित्य-निर्माण यह समझकर साहित्य-निर्माण कर रहे हैं कि उनके साहित्य में भविष्य का गौरव निहित है।

व्याकरण एवं रचना-बोध

प्रश्न 1
निम्नलिखित शब्दों से उपसर्ग पृथक् कीजिए तथा उस उपसर्ग से बनने वाले दो अन्य शब्द भी लिखिए
सम्मति, निबन्ध, विज्ञ, दुर्बोध, अभिव्यक्ति।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 1

प्रश्न 2
निम्नलिखित शब्दों से प्रत्यय अलग करके लिखिए तथा उस प्रत्यय से बने दो अन्य शब्द बताइए-
शीर्षक, विद्वत्ता, प्रतिभावान्, लज्जाशील, समीपस्थ, सुखद। शब्द
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 2
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 3

प्रश्न 3
निम्नलिखित शब्दों का इस प्रकार से वाक्यों में प्रयोग कीजिए कि उनका अर्थ स्पष्ट हो जाए-आवेग, विश्वकोश, गाम्भीर्य, कर्कशता, विषाद, दूरस्थ
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 4

प्रश्न 4
प्रस्तुत पाठ में निम्नलिखित साहित्यकारों की जिन विशेषताओं का उल्लेख हुआ है, उन्हें लिखिए-श्रीहर्ष, बाणभट्ट, अमीर खुसरो, सेनापति।
उत्तर
श्रीहर्ष–श्रीहर्ष की भाषा-शैली बड़ी क्लिष्ट है, जिसे केवल विषय-विशेषज्ञ ही समझ सकते हैं। अस्पष्टता अथवा दुर्बोधता उनकी शैली का दोष है।
बाणभट्ट–बाणभट्ट की भाषा-शैली सामासिक पदावली से युक्त है, जिसमें वाक्य अत्यधिक लम्बे हो गये हैं।
अमीर खुसरो—विभिन्न विषयों का एक सूत्र में समन्वय कर देना अमीर खुसरो के साहित्य की महती विशेषता है। यही विशेषता उन्हें अन्य साहित्यकारों से पृथक् करती है।
सेनापति-श्रीहर्ष की भाँति सेनापति की भाषा-शैली भी दुर्बोध है।

All Chapter UP Board Solutions For Class 10 Hindi

—————————————————————————–

All Subject UP Board Solutions For Class 10 Hindi Medium

*************************************************

I think you got complete solutions for this chapter. If You have any queries regarding this chapter, please comment on the below section our subject teacher will answer you. We tried our best to give complete solutions so you got good marks in your exam.

यदि यह UP Board solutions से आपको सहायता मिली है, तो आप अपने दोस्तों को upboardsolutionsfor.com वेबसाइट साझा कर सकते हैं।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top