In this chapter, we provide UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 1 कविकुलगुरुः कालिदासः (गद्य – भारती), Which will very helpful for every student in their exams. Students can download the latest UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 1 कविकुलगुरुः कालिदासः (गद्य – भारती) pdf, free UP Board Solutions Class 10 Sanskrit Chapter 1 कविकुलगुरुः कालिदासः (गद्य – भारती) book pdf download. Now you will get step by step solution to each question. Up board solutions Class 10 Sanskrit पीडीऍफ़
परिचय
संस्कृत भाषा का साहित्य इतना समृद्ध है कि उसे विश्व की किसी भी भाषा के समक्ष प्रतिस्पर्धी रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इस भाषा में महाकाव्यों, खण्डकाव्यों तथा नाटकों की परम्परा सहस्राब्दियों से प्रचलित है। संस्कृत भाषा के अनेक कवि और महाकवि हुए हैं, जिनमें कालिदास को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इनकी धवल-कीर्ति देश-देशान्तर तक फैली हुई है। इनके अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक के अध्ययनोपरान्त ही पाश्चात्य विद्वानों की अभिरुचि संस्कृत साहित्य के अध्ययन की ओर हुई थी। प्रस्तुत पाठ महाकवि कालिदास के जीवन, व्यक्तित्व एवं उनकी रचनाओं से संस्कृत के छात्रों को परिचित कराता है।
पाठ-सारांश [2007,08,09, 12, 13, 14, 15]
कविकुलगुरु : महाकवि कालिदास संस्कृत के कवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। उनकी कीर्ति-कौमुदी विदेशों तक फैली हुई है। वे भारत के ही नहीं, अपितु विश्व के श्रेष्ठ कवि के रूप में भी जाने जाते हैं। इस महान् कवि के कुल, काल एवं जन्म-स्थान के विषय में अनेक मतभेद हैं। इन्होंने अपनी कृतियों में भी अपने जीवन के विषय में कुछ भी नहीं लिखा। समीक्षकों ने अन्त: और बाह्य साक्ष्यों के आधार पर इनका परिचय प्रस्तुत किया है।
जन्म, समय एवं स्थान : कालिदास विक्रमादित्य के सभारत्न थे। कोई विद्वान् इन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन मानता है तो कोई उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का समकालीन। इस महान् कवि को सभी अपने-अपने देश में उत्पन्न हुआ सिद्ध करते हैं। कुछ विद्वान् इन्हें कश्मीर में उत्पन्न हुआ मानते हैं तो कुछ बंगाल में अनेक आलोचक इनका जन्म-स्थान उज्जैन भी मानते हैं।
कुल : कालिदास की कृतियों में वर्ण-व्यवस्था के प्रतिपादन को देखकर इन्हें ब्राह्मण कुलोत्पन्न माना जाता है। ये शिवोपासक थे, फिर भी राम के प्रति इनकी अपार श्रद्धा थी। ‘रघुवंशम् महाकाव्य की रचना से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
रचनाएँ : कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ और ‘कुमारसम्भवम्’ नामक दो महाकाव्य, ‘मेघदूतम्’ और ‘ऋतुसंहार:’ नामक दो गीतिकाव्य तथा ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ एवं ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नामक तीन नाटकों की रचना की। रघुवंशम् में राजा दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक के समस्त इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की उदारता का उन्नीस सर्गों में वर्णन किया गया है। कुमारसम्भवम् में स्वामी कार्तिकेय के जन्म का अठारह सर्गों में वर्णन है। मेघदूतम् में यक्ष और यक्षिणी के वियोग को लेकर विप्रलम्भ श्रृंगार का पूर्ण परिपाक हुआ है। ऋतुसंहारः में छः ऋतुओं का काव्यात्मक वर्णन है। मालविकाग्निमित्रम् नाटक में अग्निमित्र और मालविका के प्रेम की कथा है। विक्रमोर्वशीयम् नाटक में पुरूरवा और उर्वशी का प्रेम पाँच अंकों में वर्णित है। अभिज्ञानशाकुन्तलम् कालिदास का सर्वश्रेष्ठ नाटक है। इसके सात अंकों में मेनका के द्वारा जन्म देकर परित्यक्ता, पक्षियों द्वारा पोषित एवं कण्व महर्षि के द्वारा पालित पुत्री शकुन्तला के दुष्यन्त के साथ विवाह की कथा वर्णित है।
काव्य-सौन्दर्य : कालिदास ने अपनी रचनाओं में काव्योचित गुणों का समावेश करते हुए भारतीय जीवन-पद्धति का सर्वांगीण चित्रण किया है। उनके काव्यों में जड़ प्रकृति भी मानव की सहचरी के रूप में चित्रित की गयी है। ‘रघुवंशम्’ में दिग्विजय के लिए प्रस्थान करते समय रघु का वन के वृक्ष पुष्पवर्षा करके सम्मान करते हैं। ‘मेघदूतम्’ में बाह्य प्रकृति तथा अन्त:-प्रकृति का मर्मस्पर्शी वर्णन हुआ है। कवि के विचार में मेघ धूम, ज्योति, जलवायु का समूह ही नहीं, वरन् वह मानव के समान संवेदनशील प्राणी हैं। ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक में वन के वृक्ष शकुन्तला को आभूषण प्रदान करते हैं तथा हरिण-शावक उसका मार्ग रोककर अपना निश्छल प्रेम प्रदर्शित करता है।
कालिदास के काव्यों में प्रधान रस श्रृंगार है। शेष करुण आदि रस उसके सहायक होकर आये हैं। रस के अनुरूप प्रसाद और माधुर्य गुणों की सृष्टि की गयी है। कालिदास वैदर्भी रीति के श्रेष्ठ कवि हैं। वे अलंकारों के विशेषकर उपमा के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं। उनके नाटकों में वस्तु-विन्यास अनुपम, चरित्र-चित्रण निर्दोष और शैली में सम्प्रेषणीयता है। उनके काव्यों में मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा की गयी है। दुष्यन्त शकुन्तला को देखने के पश्चात् क्षत्रिय द्वारा विवाह करने योग्य होने पर ही उससे विवाह करते हैं। कण्व की आज्ञा के बिना गान्धर्व विवाह करके दोनों तब तक दु:खी रहते हैं, जब तक तपस्या और प्रायश्चित्त से आत्मा को शुद्ध नहीं कर लेते।
‘रघुवंशम्’ में रघुवंशी राजाओं में भारतीय जन-जीवन का आदर्श रूप निरूपित किया गया है। रघुवंशी राजा प्रजा की भलाई के लिए ही प्रजा से कर लेते थे, सत्य वचन बोलते थे, यश के लिए प्राणत्याग हेतु सदा तैयार रहते थे तथा सन्तानोत्पत्ति के लिए गृहस्थ बनते थे।
कालिदास ने हिमालय से सागरपर्यन्त भारत की यशोगाथा को अपने काव्य में निरूपित किया है। ‘रघुवंशम्’, ‘मेघदूतम्’ और ‘कुमारसम्भवम्’ में भारत के विविध प्रदेशों का सुन्दर और स्वाभाविक वर्णन मिलता है। संस्कृत के कवियों में कोई भी कवि कालिदास की तुलना नहीं कर पाया है।
गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद
(1) महाकविकालिदासः संस्कृतकवीनां मुकुटमणिरस्ति। न केवलं भारतदेशस्य, अपितु समग्रविश्वस्योत्कृष्टकविषु स एकतमोऽस्ति। तस्यानवद्या कीर्तिकौमुदी देशदेशान्तरेषु प्रसृतास्ति। भारतदेशे जन्म लब्ध्वा स्वकविकर्मणा देववाणीमलङ्कुर्वाणः स न केवलं भारतीयः कविः अपि तु विश्वकविरिति सर्वैराद्रियते। [2007,09,13]
शब्दार्थ मुकुटमणिः = मुकुट की मणि, श्रेष्ठ। उत्कृष्टकविषु = उच्च या श्रेष्ठ कवियों में। एकतमः = एकमात्र, अकेले। अनवद्या = निर्दोष, निर्मला कीर्तिकौमुदी = यश की चाँदनी। प्रसृतास्ति = फैली हुई है। लब्ध्वा = प्राप्त कर। देववाणीमलङ्कुर्वाणः (देववाणीम् + अलम् + कुर्वाणः) = देववाणी अर्थात् संस्कृत भाषा को अलंकृत करते हुए। सर्वैराद्रियते (सर्वैः + आद्रियते) = सबके द्वारा आदर पाते हैं।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘कविकुलगुरुः कालिदासः’ शीर्षक पाठ से उधृत है।
[संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास की प्रशंसा की गयी है।
अनुवाद महाकवि कालिदास संस्कृत के कवियों की मुकुटमणि हैं अर्थात् श्रेष्ठ केवल भारत देश के ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार के उत्कृष्ट कवियों में वे अद्वितीय हैं। उनकी निर्मल कीर्ति-चन्द्रिका देश-देशान्तरों में फैली हुई है। भारत देश में जन्म प्राप्त करके अपने कवि-कर्म (कविता) से देववाणी अर्थात् संस्कृत भाषा को अलंकृत करते हुए वे केवल भारत के कवि ही नहीं हैं, अपितु ‘विश्वकवि’ के रूप में सभी के द्वारा आदर किये जाते हैं।
(2) वाग्देवताभरणभूतस्य प्रथितयशसः कालिदासस्य जन्म कस्मिन् प्रदेशे, काले, कुले, चाभवत्, किञ्चासीत् तज्जन्मवृत्तम् इति सर्वमधुनापि विवादकोटिं नातिक्रामति। इतरकवयः इव कालिदासः आत्मज्ञापने स्वकृतिषु प्रायः धृतमौन एवास्ति। अन्येऽपि कवयस्तन्नामसङकीर्तनमात्रादेव स्वीयां वाचं धन्यां मत्वा मौनमवलम्बन्ते। तथापि अन्तर्बहिस्साक्ष्यमनुसृत्य समीक्षकाः कविपरिचयं यावच्छक्यं प्रस्तुवन्ति। [2006]
वाग्देवताभरणभूतस्य ………………………………….. मौनमवलम्बन्ते। [2013]
शब्दार्थ वाग्देवताभरणभूतस्य = वाणी के देवता के आभूषणस्वरूप। प्रथितयशसः = प्रसिद्ध यश वाले। वृत्तम् = वृत्तान्त विवादकोटिम् = विवाद की श्रेणी को। नातिक्रामति = नहीं लाँघता है। इतर = दूसरे। आत्मज्ञापने = अपना परिचय देने में। धृतमौन = मौन धारण किये हुए हैं। स्वीयां वाचं = अपनी वाणी को। अवलम्बन्ते = सहारा लेते हैं। अन्तर्बहिः साक्ष्यम् = अन्तः और बाहरी साक्ष्य। यावच्छक्यम् (यावत् + शक्यम्) = जितना सम्भव है। प्रस्तुवन्ति = प्रस्तुत करते हैं।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास के जन्म-वृत्तान्त की अनभिज्ञता के बारे में बताया गया है।
अनुवाद सरस्वती देवी के अलंकारस्वरूप, प्रसिद्ध यश वाले कालिदास का जन्म किस प्रदेश में, काल में और कुल में हुआ तथा उनके जन्म का वृत्तान्त क्या था, यह अभी भी विवाद की सीमा से परे नहीं है अर्थात् विवादास्पद है। दूसरे कवियों के समान कालिदास अपना परिचय देने में अपनी रचनाओं में प्रायः मौन ही धारण किये हुए हैं। दूसरे कवि भी उनका नाम लेनेमात्र से ही अपनी वाणी को धन्य मानकर मौन हो जाते हैं; अर्थात् दूसरे कवियों द्वारा भी उनके बारे में कुछ नहीं लिखा गया है। इतने पर भी आन्तरिक और बाहरी साक्ष्यों का अनुसरण करके समीक्षक यथासम्भव कवि का परिचय प्रस्तुत करते हैं।
(3) एका जनश्रुतिः अतिप्रसिद्धास्ति यया कविकालिदासः विक्रमादित्यस्य सभारत्नेषु मुख्यतमः इति ख्यापितः। परन्तु अत्रापरा विडम्बना समुत्पद्यते। विक्रमादित्यस्यापि स्थितिकालः सुतरां स्पष्टो नास्ति। केचिन्मन्यन्ते यत् विक्रमादित्योपाधिधारिणो द्वितीयचन्द्रगुप्तस्य समकालिक आसीत् कविरसौ। कालिदासस्य मालविकाग्निमित्रनाटकस्य नायकोग्निमित्रः शुङ्गवंशीय आसीत् स एव विक्रमादित्योपाधि धृतवान् यस्य सभारत्नेष्वेकः कालिदासः आसीत्। तस्य राज्ञः स्थितिकालः खीष्टाब्दात्प्रागासीत्। स एव स्थितिकालः कवेरपि सिध्यति। कविकालिदासस्य जन्मस्थानविषयेऽपि नैकमत्यमस्ति। एतावान् कवेरस्य महिमास्ति यत् सर्वे एव तं स्व-स्वदेशीयं साधयितुं तत्परा भवन्ति। कश्मीरवासिविद्वांसः कश्मीरोदभवं तं मन्यन्ते, बङ्गवासिनश्च बङ्गदेशीयम्। अस्ति तावदन्योऽपि समीक्षकवर्गः यस्य मतेन कालिदास उज्जयिन्यां लब्धजन्मासीत्। उज्जयिनीं प्रति कवेः सातिशयोऽनुराग एतन्मतं पुष्णाति।
कविकालिदासस्य ………………………………….. एतन्मतं पुष्णाति।
एका जनश्रुतिः ………………………………….. कवेरपि सिध्यति। [2011, 12, 15]
शब्दार्थ जनश्रुतिः = लोकोक्ति, किंवदन्ती। ख्यापितः = बताया गया। अत्रापरा (अत्र + अपरा) = यहाँ दूसरी। समुत्पद्यते = उत्पन्न होती है। सुतरां = भली प्रकार विक्रमादित्योपाधिम् = विक्रमादित्य की उपाधि का। सभारलेष्वेकः (सभारत्नेषु + एकः) = सभारत्नों में से एक। ख्रीष्टाब्दात् = ईस्वी वर्ष से। प्राक् = पहले। सिध्यति = सिद्ध होता है। नैकमत्यमस्ति = एकमत नहीं हैं। एतावान् = इतनी। साधयितुम् = सिद्ध करने के लिए। लब्धजन्मासीत् = जन्म हुआ था। सातिशयः = अत्यधिक पुष्णाति = पुष्टि करता है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास के जन्म और स्थितिकाल के विषय में प्रचलित विभिन्न मत दिये गये हैं।
अनुवाद एक लोकोक्ति (किंवदन्ती) अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसके द्वारा कवि कालिदास विक्रमादित्य के सभारत्नों में प्रमुख बताये गये हैं, परन्तु इस विषय में दूसरी शंका उत्पन्न होती है। विक्रमादित्य का भी स्थितिकाल अच्छी तरह स्पष्ट नहीं है। कुछ लोग मानते हैं कि यह कवि ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन थे। कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्रम्’ नाटक का नायक अग्निमित्र शुंग वंश का था। उसी ने विक्रमादित्य की उपाधि को धारण किया, जिसकी सभा के रत्नों में कालिदास एक थे। उस राजा का स्थितिकोल ईस्वी सन् से पूर्व था। वही स्थितिकाल कवि का भी सिद्ध होता है। कवि कालिदास के जन्म-स्थान के विषय में भी एक मत नहीं है। इस कवि की ऐसी महिमा है कि सभी इसे अपने-अपने देश का सिद्ध करने में लगे हुए हैं। कश्मीर के निवासी विद्वान् उन्हें कश्मीर में उत्पन्न हुआ मानते हैं और बंगाल के निवासी बंगाल देश में उत्पन्न हुआ। दूसरा भी समीक्षकों का वर्ग है, जिसके मत से कालिदास का जन्म उज्जैन में हुआ था। उज्जयिनी के प्रति कवि का अत्यधिक प्रेम इस मत की पुष्टि करता है।
(4) देशकालवदेव कालिदासकुलस्यापि स्पष्टः परिचयो नोपलभ्यते। तस्य कृतिषु वर्णाश्रमधर्मव्यव्यवस्थायाः यथातथ्येन प्रतिपादनेन एतदनुमीयते यत् तस्य जन्म विप्रकुलेऽभवत्। भावनया स शिवानुरक्तश्चासीत् तथापि तस्य धर्मभावनायां मनागपि सङ्कीर्णता नासीत्। शिवभक्तोऽपि सन् रघुवंशे स रामं प्रति स्वभक्तिभावमुदारमनसा प्रकटयति। कालिदासस्य जीवनवृत्तं सर्वथा अज्ञानान्धकाराच्छन्नमस्ति। तद्विषयकाः अनेकाः जनश्रुतयः लब्धप्रसस्सन्ति किन्तु ताः सर्वाः ईष्र्याकलुषकषायितचित्तानां कल्पनाप्ररोहा एव, अत एवं सर्वथा चिन्त्याः सन्ति
शब्दार्थ नोपलभ्यते (न + उपलभ्यते) = प्राप्त नहीं होता है। यथातथ्येन = तथ्यों के अनुसार, वास्तविक रूप से। एतदनुमीयते = यह अनुमान किया जाता है। मनागपि = थोड़ा भी। अज्ञानान्धकाराच्छन्नम् (अज्ञान + अन्धकार + आच्छन्नम्) = अज्ञानरूपी अन्धकार से ढका हुआ। तद्विषयका = उससे सम्बन्धित ईष्र्याकलुष-कषायितचित्तानां = ईष्र्या के कलुष से कसैले (कलुषित) चित्त वालों का। कल्पनाप्ररोहाः = कल्पना के अंकुर। चिन्त्याः = विचार करने योग्य।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास के कुल के विषय में विचार व्यक्त किया गया है।
अनुवाद देश और काल की तरह ही कालिदास के कुल का भी स्पष्ट परिचय प्राप्त नहीं होता है। उनकी रचनाओं में वर्ण, आश्रम और धर्म की व्यवस्था का उचित प्रतिपादन होने से यह अनुमान किया जाता है कि उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। विचार से वे शिव में अनुरक्त थे तो भी उनकी धर्म-भावना में थोड़ी-सी भी संकीर्णता नहीं थी। शिव के भक्त होते हुए भी ‘रघुवंशम्’ में उन्होंने राम के प्रति अपनी भक्ति-भावना को उदार मन से प्रकट किया है। कालिदास का जीवन-वृत्त सभी प्रकार से अज्ञान के अन्धकार में छिपा हुआ है। उनके विषय में अनेक जनश्रुतियाँ फैली हुई हैं, किन्तु वे सभी ईर्ष्या और कालुष्य से कलुषित मन वालों की कल्पना के अंकुर ही हैं, अतएव सभी प्रकार से विचार करने योग्य हैं।
(5) कालिदासस्य नवनवोन्मेषशालिन्याः प्रज्ञायाः उन्मीलनं तस्य कृतिषु नास्ति कस्यचित्सुधियः परोक्षम्। संस्कृतकाव्यस्य विविधेषु प्रमुखप्रकारेषु स्वकौशलं प्रदर्य स सर्वानतीतानागतान कवीनतिशिश्ये। रघुवंशं कुमारसम्भवञ्च तस्य महाकाव्यद्वयम्, मेघदूतम्, ऋतुसंहारश्च खण्डकाव्ये, मालविकाग्निमित्रं विक्रमोर्वशीयम् अभिज्ञानशाकुन्तलञ्च नाटकानि सन्ति। तत्र रघुवंशं नाम महाकाव्यं कविकुलगुरोः सर्वातिशायिनी कृतिरस्ति। अस्मिन् महाकाव्ये दिलीपादारभ्य अग्निवर्णपर्यन्तम् इक्ष्वाकुवंशावतंसभूतानां नृपतीनामवदाननिरूपणमस्ति। [2006,11]
शब्दार्थ नवनवोन्मेषशालिन्याः = नये-नये विकास से युक्त। प्रज्ञायाः = बुद्धि की। उन्मीलनम् = खोलने वाली। प्रदर्य = दिखाकर। सर्वान् = सभी। अतीतानागतान् = अतीत और भविष्य। अतिशिश्ये = अतिक्रमण कर गये। सर्वातिशायिनी = सर्वश्रेष्ठ। अवदाननिरूपणम् = उदारता का वर्णन।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास की रचनाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।
अनुवाद कालिदास की नये-नये विकास से युक्त बुद्धि का उद्घाटन उनकी रचनाओं में नहीं है, ऐसा किसी विद्वान् का परोक्ष (अप्रसिद्ध) कथन है। संस्कृत-काव्य के अनेक प्रमुख प्रकारों में अपना कौशल दिखाकर वे अतीत और भविष्य के सभी कवियों में श्रेष्ठ हैं। उनके रघुवंशम्’ और ‘कुमारसम्भवम्’ दो महाकाव्य; ‘मेघदूतम् और ऋतुसंहार: दो खण्डकाव्य; ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ और ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक हैं। इनमें ‘रघुवंशम्’ नाम का महाकाव्य कविकुलगुरु की सर्वश्रेष्ठ रचना है। इस महाकाव्य में दिलीप से आरम्भ करके अग्निवर्ण तक के इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राजाओं की उदारता का वर्णन है।
(6) एकोनविंशसर्गात्मकमिदं महाकाव्यं रमणीयार्थप्रतिपादकं सत् सचेतसां हृदयं सततमाह्लादयति। कुमारसम्भवे स्वामिकार्तिकेयस्य जन्मोपवर्णितम्। इदमपि काव्यम् अष्टादशसर्गात्मकमस्ति। केचन समीक्षका अष्टमसर्गपर्यन्तमेव काव्यमिदं कालिदासप्रणीतमिति मन्यन्ते। मेघदूते यक्षयक्षिण्योः वियोगमाश्रित्य विप्रलम्भशृङ्गारस्य पूर्णपरिपाको दृश्यते। ऋतुसंहारे अन्वर्थतया षण्णामृतूणां वर्णनमस्ति। मालविकाग्निमित्रनाटके अग्निमित्रस्य मालविकायाश्च प्रेमाख्यानमस्ति। पञ्चाङ्कात्मके विक्रमोर्वशीये
पुरूरवसः उर्वश्याश्च प्रेमकथा वर्णिता। अभिज्ञानशाकुन्तलं स्वनामधन्यस्य अस्य कवेः सर्वश्रेष्ठा नाट्यकृतिरस्ति। नाटकेऽस्मिन् सप्ताङ्काः सन्ति। मेनकया प्रसूतोज्झितायाः शकुन्तैश्च पोषितायाः तदनु कण्वेन परिपालितायाः शकुन्तलायाः दुष्यन्तेन सहोद्वाहस्य कथा वर्णितास्ति।,शाकुन्तलविषये प्रथितैषा भणितिः
‘काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला’
एतन्नाटकं प्राच्यपौरस्त्यैः समीक्षकैः बहु प्रशंसितम् ।
एकोनविंशसर्गात्मकमिदं …………………………… नाट्य कृतिरस्ति। [2010]
कुमारसम्भवे स्वामि- …………………………… रम्या शकुन्तला। [2013]
शब्दार्थ सचेतसाम् = रसिकों के सततमाह्लादयति = नित्य प्रसन्न करता है। केचन = कुछ। अन्वर्थतया = अर्थ के अनुसार। प्रेमाख्यानम् = प्रेम कथा प्रसूतोज्झितायाः (प्रसूता + उज्झितायाः) = जन्म दे करके छोड़ी गयी। शकुन्तैः = पक्षियों के द्वारा उद्वाहस्य = विवाह की। प्रथिता = प्रसिद्ध भणितिः = कथन, उक्ति। प्राच्यपौरस्त्यैः = पूर्वी और पश्चिमी।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया गया है।
अनुवाद उन्नीस सर्गों वाला यह (रघुवंशम्) महाकाव्य सुन्दर (रमणीय) अर्थ का प्रतिपादक होने के कारण रसिकों के हृदय को निरन्तर प्रसन्न करता है। ‘कुमारसम्भवम्’ काव्य में स्वामी कार्तिकेय के जन्म का वर्णन है। यह काव्य भी अठारह सर्गों वाला है। कुछ आलोचक आठ सर्ग तक ही इस काव्य को कालिदास के द्वारा रचा हुआ मानते हैं। ‘मेघदूतम्’ में यक्ष-यक्षिणी के वियोग को आधार बनाकर विप्रलम्भ श्रृंगार का पूर्ण परिपाक दिखाई देता है। ‘ऋतुसंहारः’ में अर्थ के अनुसार छः ऋतुओं का वर्णन है। ‘मालविकाग्निमित्रम् नाटक में अग्निमित्र और मालविका के प्रेम की कथा है। पाँच अंकों वाले ‘विक्रमोर्वशीयम्’ नाटक में पुरूरवा और उर्वशी के प्रेम की कथा वर्णित है। ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ स्वनामधन्य इस कवि की सर्वश्रेष्ठ नाट्य-रचना है। इस नाटक में सात अंक हैं। मेनका के द्वारा जन्म देकर त्यागी गयी, पक्षियों के द्वारा पोषण की गयी और उसके बाद कण्व के द्वारा पालन की गयी शकुन्तला के दुष्यन्त के साथ विवाह की कथा वर्णित है। ‘शाकुन्तलम्’ (नाटक) के विषय में यह उक्ति प्रसिद्ध है–काव्यों में नाटक सुन्दर होता है, उसमें शकुन्तला (अभिज्ञानशाकुन्तलम् ) सुन्दर है। इस नाटक की पूर्वी और पश्चिमी आलोचकों ने बहुत प्रशंसा की है।
(7) वस्तुतः कालिदासः मूर्धन्यतमः भारतीयः कविरस्ति। एकतस्तस्य कृतिषु काव्योचितगुणानां समाहारः दृश्यते अपरतश्च भारतीयजीवनपद्धतेः सर्वाङ्गीणतो तत्र राराजते। काव्योत्कर्षदृष्ट्या तस्य काव्येषु मानवमनसः सूक्ष्मानुभूतीनामिन्द्रधनुः कस्यापि सहृदयस्य चित्तमावर्जयितुं पारयति। प्रकृतिरपि स्वजडत्वं विहाय सर्वत्र मानवसहचरीवाचरति। रघुवंशे दिग्विजयार्थं प्रस्थितस्य रघोः सभाजनं वनवृक्षाः प्रसूनवृष्टिभिः सम्पादयन्ति। मेघे विरहोत्कण्ठितस्य यक्षस्य प्रेमविह्वलतायाः अद्वितीय सृष्टिः परिलक्ष्यते। तत्र बाह्यान्तः प्रकृत्योः मर्मस्पृग्वर्णनमस्ति। कविदृष्ट्या मेघः धूमज्योतिस्सलिलमरुतां सन्निपातो न भूत्वा एकः संवेदनशीलः मानवोपमः प्राणी अस्ति। स रामगिरेः आरभ्यालकां यावत् यस्य कस्यापि सन्निधि लभते तस्मै हर्षोल्लासौ वितरति। शाकुन्तलनाटके पतिगृहगमनकाले आश्रमपादपाः स्वभगिन्यै शकुन्तलायै आभरणानि समर्पयन्ति। हरिणार्भकः तस्याः मार्गावरोधं कृत्वा स्वकीयं निश्छलं प्रेम प्रकटयति। एवमेव नद्यः प्रेयस्य इवाचरन्ति। सूर्यः अरुणोदयवेलायां स्वप्रियतमायाः नलिन्याः तुषारबिन्दुरूपाणि अश्रूणि स्वकरैः परिमृजति।
रघुवंशे दिग्विजयांर्थं ……………………………………….. हर्षोल्लासौ वितरति। [2006, 08]
वस्तुतः कालिदासः ………………………………………………… सम्पादयन्ति। [2008, 11]
शाकुन्तलनाटके …………………………………….. स्वकरैः परिमृजति।
शब्दार्थ मूर्धन्यतमः = सर्वश्रेष्ठ। एकतः = एक ओर। समाहारः = समावेश। अपरतः = दूसरी ओर। राराजते = अत्यन्त सुशोभित हो रही है। सूक्ष्मानुभूतीनामिन्द्रधनुः (सूक्ष्म + अनुभूतीनां + इन्द्रधनुः) = सूक्ष्म अनुभूतियों का इन्द्रधनुष। आवर्जयितुम् = प्रभावित करने में पारयति = समर्थ होता है। विहाय = त्यागकर। सहचरीव = साथ रहने वाली के समान। आचरति = आचरण करती है। सम्पादयन्ति = पूर्ण करते हैं। परिलक्ष्यते = दिखाई देती है। बाह्यान्तः प्रकृत्योः = बाहरी और आन्तरिक प्रकृतियों का। मर्मस्पृक् = मर्मस्पर्शी, हृदय को छूने वाला। धूमज्योतिस्सलिलमरुतां = धुआँ, प्रकाश, पानी और वायु सन्निपातः = समूह। न भूत्वा = न होकर। आरभ्य-अलकां = आरम्भ करके अलका को। सन्निधिम् = समीपता को। स्वभगिन्यै = अपनी बहन के लिए। आभरणानि = आभूषणों को। अर्भकः = बच्चा। मार्गावरोधं कृत्वा = मार्ग को रोककर। प्रकटयति = प्रकट करता है। नलिन्याः = कमलिनी के। स्वकरैः = अपनी किरणों (हाथों) से। परिमृजति = पोंछता है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में यह कहा गया है कि कालिदास की रचनाएँ कितनी माधुर्यपूर्ण हैं।
अनुवाद वास्तव में कालिदास सर्वश्रेष्ठ भारतीय कवि हैं। एक ओर (जहाँ) उनकी रचनाओं में काव्य के लिए उचित गुणों का समावेश दिखाई देता है तो दूसरी ओर उनमें भारतीय जीवन-पद्धति की सर्वांगीणता भी सुशोभित होती है। काव्य की श्रेष्ठता की दृष्टि से उनके काव्यों में मानव-मन की सूक्ष्म अनुभूतियों का इन्द्रधनुष किसी भी सहृदय को प्रभावित करने में समर्थ है। प्रकृति भी अपनी जड़ता को छोड़कर सभी जगह (काव्यों में) मानव की सहचरी के समान आचरण करती है। रघुवंशम्’ में दिग्विजय के लिए प्रस्थान किये हुए रघु का सम्मान वन के वृक्ष पुष्पों की वर्षा से सम्पादित करते हैं। ‘मेघदूतम्’ में विरह से उत्कण्ठित यक्ष की प्रेम-विह्वलता की अद्वितीय सृष्टि परिलक्षित होती है। उसमें बाह्यप्रकृति और अन्त:प्रकृति का मर्मस्पर्शी वर्णन है। कवि की दृष्टि में मेघ धुआँ, प्रकाश, जल, वायु का समूह न होकर एक संवेदनशील मानव के समान प्राणी है। वह रामगिरि से लेकर अलका तक जिस किसी की समीपता प्राप्त करता है, उसे हर्ष और उल्लास प्रदान करता है। ‘शाकुन्तलम्’ नाटक में पति के घर जाते समय आश्रम के वृक्ष अपनी बहन शकुन्तला को आभूषण प्रदान करते हैं। हिरन का बच्चा (शावक) उसका रास्ता रोककर अपने निष्कपट प्रेम को प्रकट करता है। इसी प्रकार नदियाँ भी प्रेमिका की तरह आचरण करती हैं। सूर्य अरुणोदय (प्रथम किरण निकलने) के समय अपनी प्रियतमा कमलिनी के ओस की बूंदरूपी आँसुओं को अपनी किरणों (हाथों) से पोंछता है।
(8) कालिदासकाव्येषु अङ्गीरसः शृङ्गारोऽस्ति। तस्य पुष्ट्यर्थं करुणादयोऽन्ये रसाः अङ्गभूताः। रसानुरूपं क्वचित प्रसादः क्वचिच्च माधुर्यं तस्य काव्योत्कर्षेः साहाय्यं कुरुतः। वैदर्भीरीतिः कालिदासस्य वाग्वश्येव सर्वत्रानुवर्तते। अलङ्कारयोजनायां कालिदासोऽद्वितीयः। यद्यपि उपमाकालिदासस्येत्युक्तिः उपमायोजनायामेव कालिदासस्य वैशिष्ट्यमाख्याति तथापि उत्प्रेक्षार्थान्तरन्यासादीनामलङ्काराणां विनियोगः तेनातीव सहजतया कृतः। कालिदासस्य नाट्यकृतिषु विशेषतः शाकुन्तले वस्तुविन्यासः अनुपमः, चरित्रचित्रणं सर्वथानवद्यं संवादशैली सम्प्रेषणीयास्ति। सममेव भारतीयसंस्कृत्यनुमतानां धर्मार्थकाममोक्षमूलानां मानवमूल्यानां प्रकाशनं कालिदासस्य वैशिष्ट्यमस्ति। आश्रमवासिनीं शकुन्तला निर्वयँ मनसि कामप्ररोहमनुभूय दुष्यन्तः तावच्छान्ति न लभते यावत्तां क्षत्रियपरिग्रहक्षमा विश्वामित्रस्य दुहितेयमिति नार्वेति। कण्वस्यानुज्ञां विना गन्धर्वविधिना कृतः विवाहः उभावपि तावत्प्रताडयति यावदेकतः शकुन्तला मारीचाश्रमे तपश्चरणेन अवज्ञाजनितं कलुषं न क्षालयति, अपरतः दुष्यन्तः अङ्गुलीयलाभेन लब्धस्मृतिः सन् भृशं पीयमानः प्रायश्चित्ताग्नौ आत्मशुद्धि न कुरुते। तदनन्तरमेव तयोः दाम्पत्यप्रेम निष्कलुषं भवति पुत्रोपलब्धौ च परिणमते।
कालिदासस्य नाट्यकृतिषु …………………………. च परिणमते। [2007]
कालिदासकाव्येषु …………………………………. सहजतया कृतः। [2007,11]
कालिदासस्य नाटयकृतिषु …………………………….. इति नावैति। [2009]
शब्दार्थ अङ्गीरसः = प्रधान रस। अङ्गभूताः = सहायक, गौण रूप में। क्वचित् = कहीं। काव्योत्कर्षेः = काव्य की उन्नति में। वाग्वश्येव (वाक् + वश्या + इव) = वाणी के वश में होने वाली के समान। अनुवर्तते = अनुसरण करती है। आख्याति = बताती है। विनियोगः = प्रयोग। तेनातीव = उसने अधिकता से। सहजतया = सरलता से। वस्तुविन्यासः = कथावस्तु का संघटन। अनवद्यम् = निर्दोष सम्प्रेषणीया = प्रेषण गुण से युक्त। सममेव = साथ ही। निर्वण्र्य = देखकर। कामप्ररोहमनुभूय (काम + प्ररोहम् + अनुभूय) = काम-भाव की उत्पत्ति का अनुभव करके। क्षत्रियपरिग्रहक्षमाम् = क्षत्रिय द्वारा विवाह के योग्य। दुहितेयमिति (दुहिता + इति + इयम्) = पुत्री है यह ऐसा। नावैति = नहीं जान लेता है। कण्वस्यानुज्ञाम् = कण्व की अनुमति के उभावपि (उभौ + अपि) = दोनों को। अवज्ञाजनितम् = अपमान से उत्पन्न। कलुषम् = पाप। क्षालयति = धो देती है। लब्धस्मृतिः = स्मृति पाकर (याद करके)। भृशं = अधिक। प्रायश्चित्ताग्नौ = प्रायश्चित्त रूपी अग्नि में। तदनन्तरमेव = इसके बाद ही। निष्कलुषम् = निर्मल, पापरहित परिणमते = फलित होता है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास के काव्यों की भावपक्षीय व कलापक्षीय विशेषताओं; यथा–रस, शैली, अलंकार आदि का वर्णन किया गया है।
अनुवाद कालिदास के काव्यों में मुख्य रस श्रृंगार है। उसकी पुष्टि के लिए करुण आदि अन्य रस सहायक रूप में हैं। रस के अनुरूप कहीं प्रसाद गुण और कहीं माधुर्य गुण उनके काव्य के विकास में सहायता प्रदान करते हैं। वैदर्भी रीति कालिदास की वाणी के वश में हुई-सी सभी जगह अनुसरण (वाणी का) करती है। अलंकारों की योजना में कालिदास अद्वितीय हैं। यद्यपि ‘उपमा कालिदासस्य’ यह कथन उपमा की योजना में कालिदास की विशेषता बताता है, फिर भी उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का प्रयोग उन्होंने अत्यधिक स्वाभाविक ढंग से किया है। कालिदास की नाट्य रचनाओं में, विशेषकर ‘शाकुन्तलम्’ नाटक में, कथावस्तु की योजना अनुपम है; चरित्र-चित्रण सभी प्रकार से निर्दोष और संवाद-शैली प्रेषण गुण से समन्वित है। साथ ही भारतीय संस्कृति के मतानुसार धर्म, अर्थ, काम, मोक्षस्वरूप मानव-मूल्यों का प्रकाशन कालिदास की विशेषता है। आश्रम में निवास करने वाली शकुन्तला को देखकर, मन में काम के अंकुर की अनुभूति करके दुष्यन्त तब तक शान्ति प्राप्त नहीं करते हैं, जब तक उसे क्षत्रिय के द्वारा विवाह के योग्य विश्वामित्र की पुत्री नहीं जान लेते हैं। कण्व की आज्ञा के बिना गन्धर्व विधि से किया गया विवाह दोनों को ही तब तक सताता रहता है, जब तक एक ओर शकुन्तला मारीच ऋषि के आश्रम में तपस्या के आचरण से (दुर्वासा के) अपमान से उत्पन्न पाप को नहीं धो डालती, दूसरी ओर दुष्यन्त अँगूठी के मिलने से स्मृति (याद) पाकर अत्यन्त पीड़ित होते हुए प्रायश्चित्त की अग्नि में आत्मशुद्धि नहीं कर लेते हैं। इसके बाद ही उन दोनों का दाम्पत्य-प्रेम निष्पाप (शुद्ध) होता है और पुत्र की प्राप्ति में प्रतिफलित होता है।
(9) रघुवंशे कालिदासः रघुवंशिनां चित्रणं तथा करोति यथा भारतीयजनजीवनस्योदात्तादर्शानां सम्यग् दिग्दर्शनं भवेत्। रघुकुलजाः राजानः प्रजाक्षेमाय बलिमाहरन्। मितसंयतभाषिणस्ते सदा सत्यनिष्ठाः आसन्। यशस्कामास्ते तदर्थं प्राणानपि त्यक्तं सदैवोद्यता अभवन्। केवल सन्तत्यर्थे ते गृहमेधिनो बभूवुः। शैशवे विद्यार्जनं यौवने रञ्जनम्। वार्द्धक्ये मुक्त्यर्थं मुनिवदाचरणं तेषां व्रतमासीत्। बाल वृद्धवनितादीनां यदाचरणं कालिदासकाव्ये निरूपितं तत्सर्वथा भारतीयसंस्कृतिगौरवानुरूपमेव। [2009,14]
शब्दर्थ उदात्तादर्शानाम् = श्रेष्ठ आदर्शों का सम्यग् = भली प्रकार दिग्दर्शनम् = वर्णन। क्षेमाय = भलाई के लिए। बलिम् = टैक्स, कर। आहरन् = लेते थे। मितसंयतभाषिणस्ते = सीमित और संयमपूर्ण वचन बोलने वाले वे। यशस्कामास्ते = यश चाहने वाले वे| उद्यताः = तैयार। सन्तत्यर्थे = सन्तानोत्पत्ति के लिए। गृहमेधिनः = गृहस्थ धर्म वाले। रञ्जनम् = भोग। वार्धक्ये = वृद्धावस्था में। मुनिवदाचरणम् (मुनिवत् + आचरणम्) = मुनियों के समान आचरण। वनिता = स्त्री। निरूपितम् = वर्णन किया गया है, वर्णित है। अनुरूपम् = समान।
प्रसग प्रस्तुत गद्यांश में रघुवंशी राजाओं के आचरण का वर्णन किया गया है।
अनुवाद ‘रघुवंशम्’ में कालिदास रघुवंशी राजाओं का चित्रण उस प्रकार करते हैं, जिससे भारतीय जनजीवन के श्रेष्ठ आदर्शों का अच्छी तरह वर्णन हो सके। रघुकुल में उत्पन्न हुए राजा लोग प्रजा की भलाई के लिए कर (टैक्स) लेते थे। परिमित और सधी हुई वाणी बोलने वाले वे सदा सत्यनिष्ठ होते थे। यश की इच्छा करने वाले वे उसके लिए प्राणों को भी छोड़ने हेतु सदैव तैयार रहते थे। केवल सन्तान के लिए ही वे गृहस्थ धर्म वाले होते थे। बचपन में विद्या-प्राप्ति, युवावस्था में भोग और वृद्धावस्था में मुक्ति के लिए मुनियों के समान आचरण करना उनका व्रत था। बालक, वृद्ध, स्त्री आदि का जो आचरण कालिदास के काव्य में निरूपित हुआ है, वह सभी तरह से भारतीय संस्कृति के गौरव के अनुरूप ही है।
(10) आहिमवतः सिन्धुवेलां यावत् विकीर्णाः भारतगौरवगाथाः कालिदासेन स्वकृतिषुपनिबद्धाः। रघुवंशे, मेघे, कुमारसम्भवे च भारतदेशस्य विविधभूभागानां गिरिकाननादीनां यादृक्स्वा भाविकं मनोहारि च चित्रणं लभ्यते, स्वचक्षुषाऽनक्लोक्य तदसम्भवमस्ति। तथाविधं तस्य देशप्रेम तस्य काव्योत्कर्ष समुद्रढयति। सन्तु तत्रानल्पा संस्कृतकवयः किन्तु कस्यापि कालिदासेन साम्यं नास्ति। साधूक्तम् केनचित् कालिदासानुरागिणा –
पुरा कवीनां गणनाप्रसङ्गे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदासः।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावादनामिका सार्थवती बभूव [2005]
आहिमवतः …………………………………… साम्यं नास्ति। [2006, 11, 15]
शब्दार्थ आहिमवतः = हिमालय से लेकर। सिन्धुवेलां यावत् = समुद्र तट तक। विकीर्णाः = बिखरी हुई, फैली हुई। स्वकृतिषुपनिबद्धाः (स्वकृतिषु + उपनिबद्धाः) = अपनी रचनाओं में सम्मिलित की है। यादृक् = जैसा। लभ्यते = प्राप्त होता है। अनवलोक्य = देखे बिना। तदसम्भवमस्ति (तत् + असम्भवम् + अस्ति) = असम्भव है।
समुद्रढयति = अच्छी तरह दृढ करता है। अनल्पाः = बहुत-से। साम्यम् = समानता, बराबरी। साधूक्तम् = ठीक कहा है। अनुरागिणा = प्रेमी ने। गणनाप्रसङ्गे = गणना के अवसर पर। कनिष्ठिकाधिष्ठित = कनिष्ठिका (छोटी) अँगुली पर रखा गया। अद्यापि = आज भी। अनामिका = अँगूठे की ओर से चौथी अँगुली, बिना नाम वाली। सार्थवती = सार्थक, अर्थात् अर्थ साथ रखने वाली। बभूव = हो गयी।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत के कवियों में कालिदास की सर्वश्रेष्ठता बतायी गयी है।
अनुवाद हिमालय से लेकर समुद्रपर्यन्त भारत के गौरव की जितनी गाथाएँ फैली हैं, वे कालिदास ने अपनी रचनाओं में निबद्ध की हैं। रघुवंशम्’, ‘मेघदूतम्’ और ‘कुमारसम्भवम्’ में भारत देश के विविध भू-भागों, पर्वत और वनों का जैसा स्वाभाविक और मनोहर चित्रण मिलता है, अपनी आँख से देखे बिना वह (ऐसा वर्णन) असम्भव है। उस प्रकार का उनका देश-प्रेम उनके काव्य की श्रेष्ठता को दृढ़ करता है। भले ही संस्कृत में बहुत-से कवि हों, किन्तु किसी की भी कालिदास के साथ समानता नहीं है। कालिदास के किसी प्रेमी ने ठीक कहा है –
प्राचीनकाल में, कवियों की गणना करने के प्रसंग में कालिदास का नाम कनिष्ठिका (सबसे छोटी) अँगुली पर रखा गया, अर्थात् सर्वप्रथम गिना गया। आज भी उनके बराबर (समान स्तर) के कवि के न होने से अनामिका (बिना नाम वाली) अँगुली सार्थक हो गयी है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
कालिदास की काव्य-शैली का परिचय दीजिए।
उत्तर :
कालिदास के काव्यों में प्रधान रस ‘श्रृंगार’ है। शेष करुण आदि रस उसके सहायक होकर आये हैं। रस के अनुरूप प्रसाद और माधुर्य गुणों की सृष्टि की गयी है। कालिदास वैदर्भी रीति के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। ये अलंकारों के, विशेषकर उपमा के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं। इनके नाटकों में वस्तुविन्यास अनुपम, चरित्र-चित्रण निर्दोष और शैली में सम्प्रेषणीयता है। इनके काव्यों में मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा की गयी है।
प्रश्न 2.
महाकवि कालिदास के ग्रन्थों ( रचनाओं) के नाम लिखिए। [2007,08, 10, 11]
या
महाकवि कालिदास के नाटकों के नाम लिखिए। [2012, 13]
या
महाकवि कालिदास रचित दो महाकाव्यों के नाम लिखिए। [2007, 08, 14]
या
कालिदास रचित विविध ग्रन्थों के नाम लिखिए। [2015]
या
‘रघुवंशम्’ महाकाव्य किसकी रचना है? [2007]
उत्तर :
कालिदास को देववाणी का विलास कहा जाता है। संस्कृत भाषा को समस्त सौन्दर्य इनकी रचनाओं में साकार हो गया है। इन्होंने ‘रघुवंशम्’ और ‘कुमारसम्भवम्’ दो महाकाव्य, ‘मेघदूतम्’ और ‘ऋतुसंहार: दो गीतिकाव्य तथा ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ एवं ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ तीन नाटकों की रचना की है।
प्रश्न 3.
महाकवि कालिदास के विषय में क्या जनश्रुति प्रसिद्ध है? [2006]
उत्तर :
कालिदास के विषय में यह जनश्रुति प्रसिद्ध है कि ये विक्रमादित्य के सभारत्न थे, किन्तु विडम्बना यह है कि कोई विद्वान् इन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन मानता है तो कोई उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का समकालीन। इस महान् कवि को सभी अपने-अपने देश में उत्पन्न हुआ सिद्ध करते हैं। कुछ विद्वान् इन्हें कश्मीर में उत्पन्न हुआ मानते हैं तो कुछ बंगाल में उत्पन्न हुआ।
प्रश्न 4.
कालिदास को सर्वश्रेष्ठ कवि कहे जाने का कारण बताइए।
या
कालिदास को ‘कविकुलगुरु’ क्यों कहा जाता है? [2012]
उत्तर :
कालिदास की रचनाओं में काव्योचित गुणों के साथ-साथ भारतीय जीवन पद्धति की सर्वांगीणता भी सुशोभित होती है। उनका काव्य सहृदय-जनों को प्रभावित करने में समर्थ है। हिमालय से लेकर समुद्रपर्यन्त तक जितनी भी भारत के गौरव की गाथाएँ हैं, उन सभी को कालिदास ने अपनी रचनाओं में निबद्ध किया है। बालक, वृद्ध, स्त्री आदि का आचरण इनके काव्य में भारतीय संस्कृति के गौरव के अनुरूप ही निरूपित हुआ है। ये सभी कारण कालिदास की सर्वश्रेष्ठता को प्रमाणित करते हैं। इसीलिए कालिदास को ‘कविकुलगुरु’ कहा जाता है।
प्रश्न 5.
महाकवि कालिदास की रचनाओं का परिचय दीजिए।
उत्तर :
[ संकेत ‘पाठ-सारांश’ के उपशीर्षक ‘रचनाएँ’ शीर्षक की सामग्री अपने शब्दों में लिखें। ]
प्रश्न 6.
‘मेघदूत’ में कवि ने किसका वर्णन किया है? [2010, 11, 12]
उत्तर :
‘मेघदूत’ में महाकवि कालिदास ने विरह से उत्कण्ठित यक्ष की प्रेमविह्वलता तथा बाह्य-प्रकृति व अन्त:-प्रकृति का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है।
प्रश्न 7.
कालिदास का जीवन-परिचय लिखिए। [2006,07]
उत्तर :
महाकवि कालिदास संस्कृत के कवियों में मूर्धन्य तथा विश्व के महानतम कवियों में से एक हैं। इनका जन्म कब और कहाँ हुआ, इस विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं। एक जनश्रुति के अनुसार ये विक्रमादित्य के सभारत्न थे तो कुछ विद्वान् इन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन मानते हैं। कुछ विद्वान् इन्हें कश्मीर में उत्पन्न हुआ मानते हैं तो कुछ बंगाल में। इनकी रचनाओं में वर्णित तथ्यों के आधार पर इन्हें ब्राह्मण कुल में जन्म लिया हुआ तथा शिव व राम का भक्त माना जाता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है। कि इनका जीवन-वृत्त सभी प्रकार से अज्ञान के अन्धकार में छिपा हुआ है।
प्रश्न 8.
कालिदास का जन्म किस कुल में हुआ था? [2009]
उत्तर :
कालिदास के कुल का स्पष्ट परिचय प्राप्त नहीं होता है। इनकी रचनाओं में वर्ण, आश्रम और धर्म की व्यवस्था का उचित प्रतिपादन होने के कारण विद्वानों का अनुमान है कि इनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था।
प्रश्न 9.
कवि-गणना में कनिष्ठिका पर किस कवि को गिना गया है? [2010]
उत्तर :
कवि-गणना में कनिष्ठिका अर्थात् सबसे छोटी अँगुली पर कालिदास को गिना गया है, अर्थात् सर्वप्रथम गिना गया है।
प्रश्न 10.
अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ कथा के नायक-नायिका का क्या नाम है? [2013]
उत्तर :
‘अभिज्ञानशाकुन्तलम् कथा के नायक हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त’ और नायिका अप्सरा मेनका की पुत्री ‘शकुन्तला’ है।
प्रश्न 11
‘मेघदूतम्’ में कवि ने किसको दूत बनाकर कहाँ भेजा है? [2013]
उत्तर :
‘मेघदूतम्’ में कवि कालिदास ने मेघ (बादल) को यक्ष का दूत बनाकर यक्षिणी अलका के पास सन्देश भेजा है।
प्रश्न 12.
कालिदास के नाटकों का संक्षिप्त परिचय दीजिए। [2013]
उत्तर :
महाकवि कालिदास ने ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ एवं ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नामक तीन नाटकों की रचना की है। ‘मालविकाग्निमित्रम्’ नाटक में अग्निमित्र और मालविका के प्रेम की कथा है। पाँच अंकों वाले ‘विक्रमोर्वशीयम्’ नाटक में पुरूरवा और उर्वशी के प्रेम की कथा वर्णित है। ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है, जिसमें सात अंक हैं। इसमें मेनका नामक अप्सरा के द्वारा जन्म देकर त्यागी गयी और कण्व के द्वारा पालन की गयी शकुन्तला के दुष्यन्त के साथ प्रेम और विवाह तत्पश्चात् वियोग और पुनर्मिलन की कथा वर्णित है।
All Chapter UP Board Solutions For Class 10 Sanskrit
—————————————————————————–
All Subject UP Board Solutions For Class 10 Hindi Medium
*************************************************
I think you got complete solutions for this chapter. If You have any queries regarding this chapter, please comment on the below section our subject teacher will answer you. We tried our best to give complete solutions so you got good marks in your exam.
यदि यह UP Board solutions से आपको सहायता मिली है, तो आप अपने दोस्तों को upboardsolutionsfor.com वेबसाइट साझा कर सकते हैं।